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अर्थ है-साक्षात्कार, अनुभव। इससे तर्क की शक्ति नहीं बढ़ती, साक्षात्कार की शक्ति बढ़ती है, अनुभव की शक्ति का विकास होता है। __पीले रंग की क्षमता है-मन को प्रसन्न करना, बुद्धि का विकास करना, दर्शन की शक्ति को बढ़ाना, मस्तिष्क और नाड़ी-संस्थान को सुदृढ़ करना, सक्रिय बनाना। यदि हम हृदय-केन्द्र या आनन्द-केन्द्र पर पीले रंग का ध्यान करते हैं और मस्तिष्क तथा विशुद्धि-केन्द्र पर पीले रंग का ध्यान करते हैं तो अंधकार के रंगों द्वारा निर्मित आदतें विघटित होने लगती हैं और नई आदतें बननी प्रारम्भ हो जाती हैं। लेश्या-ध्यान का प्रयोग बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रयोग है। यह जैन साधना पद्धति का अपूर्व प्रयोग है। इस प्रयोग द्वारा आत्म-साक्षात्कार की झलक मिलती है। साधकों को मिली है।
लेश्या कोरी जानने, देखने और रटने की बात नहीं है, यह साधना की पूरी प्रक्रिया है। यह समूचे व्यक्तित्व को बदलने की प्रक्रिया है। तीन काली लेश्याओं ने जिस व्यक्तित्व का निर्माण कर रखा है, उसे विघटित करने के लिए तीन प्रकाश लेश्याएं समक्ष हैं। वे नया व्यक्तित्व उभार देती हैं।
लेश्याओं के छः रंग हैं। उनमें तीन खराब हैं और तीन अच्छे। तीन प्रशस्त रंग हैं और तीन अप्रशस्त रंग हैं। काला, नीला और कबूतरिया (कापोत) ये खराब ही नहीं होते। हमें दो भेद करने होंगे-प्रकाश के रंग और अंधकार के रंग। अंधकार का काला, नीला और कापोत रंग खराब होता है और प्रकाश का काला, नीला और कापोत रंग अच्छा होता है। इसी प्रकार अंधकार का लाल, पीला और श्वेत रंग खराब होता है और प्रकाश का लाल, पीला और श्वेत रंग अच्छा होता है। कृष्ण-लेश्या विशुद्ध होती-होती नील-लेश्या बनती है। महावीर से पूछा-'भंते! क्या कृष्ण-लेश्या, नील-लेश्या और कापोत-लेश्या के परिणाम अप्रशस्त होते हैं?' महावीर ने कहा- 'ऐसा नहीं है। कृष्ण, नील और कापोत-लेश्या के समय हमारे परिणाम प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों होते हैं। इसलिए सापेक्षता से कहा जाता है कि कृष्ण-लेश्या की अपेक्षा नील-लेश्या विशद्ध है, नील-लेश्या की अपेक्षा कापोत-लेश्या विशुद्ध है।' हमें दो प्रकार करने होंगे-एक संक्लेश का और दूसरा असंक्लेश का। संक्लेश का चरम बिन्दु ११० आभामंडल
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