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________________ है। व्युत्सर्ग घटित हो जाने के पश्चात् प्रतिपक्षी स्वभाव का चित्त-निर्माण आवश्यक होता है। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए-मैं क्रोध को छोड़ने के लिए, उसकी पूरी प्रक्रिया से गुजरता हूं और व्युत्सर्ग तक पहुंच जाता हूं। वहां पहुंचकर मुझे एक बात और करनी होती है कि जिसका मैं व्युत्सर्ग कर रहा हूं, वह कहीं फिर न आ जाए, मुझसे संबद्ध न हो जाए। एक बुढ़िया थी। उसके चार दामाद थे। चारों मरकर प्रेत हुए। वे बारी-बारी से बुढ़िया के घर आने लगे। वह एक प्रेत को गंगाजी में छोड़ आती तो दूसरा घर पर मौजूद रहता। उसे गंगाजी में डाल आती, तो तीसरा प्रेत घर पर मिलता और उसे भी गंगाजी में डाल आती, तो चौथा प्रेत घर पर मिलता। उसे जब गंगाजी में डाल आती, तो फिर पहला प्रेत आ जाता। यह क्रम चलता रहा। वह उन प्रेतों से छुटकारा नहीं पा सकी। एक व्यक्ति ने दारिद्र से कहा-मैं कमाने के लिए परदेश जा रहा हूं, यात्रा करना चाहता हूं, तुम यहीं रहकर मेरे घर की देखभाल करो। दारिद्र बोला-यह कैसे हो सकता है? आज तक मैंने तुम्हारा साथ निभाया है। आज मैं तुम्हें अकेले विदेश कैसे जाने दूं? तुम विदेश में रहो और मैं यहां रहूं। यह कैसे संभव हो सकता है? मैं कच्चा मित्र नहीं हूं। मैं सर्वत्र साथ ही रहूंगा। तब उस व्यक्ति ने कहा-मुझे तब विदेश जाने की जरूरत ही नहीं है। यदि यही क्रम रहे कि हम जिस आदत को छोड़ें, जिसका हम व्युत्सर्ग करें, व्युत्सर्ग कर हम अपने घर पहुंचे और वह आदत फिर तैयार मिले तो हमारी प्रक्रिया पूरी नहीं होगी। इसलिए हमें प्रतिपक्षी भावना के चित्त का निर्माण करना होगा। यदि क्रोध को छोड़ना है तो उसका प्रतिपक्ष 'क्षमा' का चित्त हमें निर्मित करना होगा। क्षमा का चित्त इतना स्पष्ट और प्रत्यक्ष हो कि फिर क्रोध को आने का मौका ही न मिले। बुढ़िया के दामाद को आने का अवसर न मिले और दारिद्र् को साथ चलने का मौका न मिले। रूपान्तरण का अंतिम चरण है-प्रतिपक्ष भावना का निर्माण। क्रोध १०० आभामंडल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003062
Book TitleAbhamandal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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