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सकता। किन्तु यह सही नहीं है। यदि कोई व्यक्ति दो-तीन महीने तक इन सूत्रों का प्रयोग करता है तो यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि आदत को बदलना होगा। वह पूर्ववत् रह नहीं सकती। जो सत्य है उस सत्य को हम कैसे टाल सकते हैं। निश्चय की भाषा में इसीलिए बोल रहा हूं कि इस प्रक्रिया के निष्कर्ष में कोई संदेह नहीं है। जो शाश्वत सत्य है, वहां संदिग्ध भाषा बोलने की जरूरत नहीं। इसीलिए मैं निश्चयपूर्वक कहता हूं कि आदत बदलती है। यह ध्रव सत्य है। जो प्रयोग करेगा, इस प्रक्रिया से गुजरेगा, वह अपनी आदतों को अवश्य ही बदल देगा। समय का अंतर हो सकता है, संकल्प-शक्ति का अन्तर हो सकता है, निश्चय और आंतरिक शक्तियों के श्रद्धा का अंतर हो सकता है, किन्तु निष्पत्ति का अंतर नहीं हो सकता। दृढ़ निश्चय के साथ प्रक्रिया का अभ्यास करने पर स्वभाव अपने आप बदल जाता है। यदि हम स्वभाव-परिवर्तन की बात न मानें तो मिथ्यादृष्टि कभी सम्यग्-दृष्टि नहीं हो सकता, सम्यग-दृष्टि कभी व्रती नहीं हो सकता, व्रती कभी महाव्रती नहीं हो सकता, महाव्रती कभी अप्रमत्त नहीं हो सकता और अप्रमत्त कभी वीतराग और केवली नहीं हो सकता। जो धर्म स्वभाव-परिवर्तन की बात को नहीं मानता, वह धर्म अपने अनुयायियों को धोखे में डालता है, उनका विकास नहीं कर सकता। एक योग्य शिक्षक अपने शिष्यों को बदलने में सक्षम होता है, वह शिष्यों को बदल देता है, रूपान्तरित कर देता है। आइंस्टीन स्कूल में पढ़ रहा था। अध्यापक ने गणित का प्रश्न पूछा। उत्तर ठीक नहीं दिया जा सका। अध्यापक ने कहा-'आइंस्टीन! तुम बुद्धू हो और बुद्धू ही बने रहोगे। कभी आगे नहीं बढ़ सकोगे।' समय बदला और एक दिन वह आया कि आइंस्टीन और गणित पर्यायवाची बन गए।
आन्ध्र में एक गुरु अपने पांच सौ शिष्यों को पढ़ा रहा था। उसके मन में भावना जागी। उसने एक प्रयोग शुरू किया और पांच सौ के पांच सौ शिष्य स्मृति, बुद्धि और मेधा में अग्रणी बन गए।
मैं अपनी बात कहूं। एक दिन था कि मैं अपने साथियों में सबसे पिछड़ा हुआ था। आचार्य तुलसी का मार्ग-दर्शन मिला। उनका वरद हस्त
स्वभाव-परिवर्तन का दूसरा चरण ६७
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