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________________ 55 अहिंसा और निःशस्त्रीकरण शस्त्र को जन्म देता है। निर्लोभीकरण और अभयीकरण के बिना निःशस्त्रीकरण की बात सरल नहीं लगती। वर्तमान में निःशस्त्रीकरण का संदर्भ बदला हुआ है। परम्परागत शस्त्रों की समाप्ति की बात अभी नहीं की जा रही है। अभी उन शस्त्रों को निरस्त करने की बात की जा रही है, जो पूरी मानव जाति के लिए प्रलय की लीला रचने में सक्षम है। मध्यम और लघु दूरी के प्रक्षेपास्त्रों के उन्मूलन का बहुत बड़ा महत्त्व नहीं है। परमाणु अस्त्रों के विशाल भण्डार के ये स्फुलिंग मात्र हैं। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि विश्व अस्त्र-नियंत्रण की दिशा में एक कदम आगे बढ़ा है। बड़ी शक्तियों ने अनुभव किया है कि मानवजाति का अस्तित्व और परमाणु अस्त्र-दोनों को एक साथ नहीं चलाया जा सकता। यदि मानव-जाति के अस्तित्व को बनाए रखना है तो परमाणु अस्त्रों की प्रतिस्पर्धा पर अंकुश लगाना होगा, पीछे लौटकर उनका उन्मूलन भी करना होगा। इस अनुभव की दिशा में जो पहला प्रयास शुरू हुआ है, वह विश्व शान्ति के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण घटना है। उसके लिए गोर्बाच्योव और रेगन- इन दोनों महाशक्तियों के प्रतिनिधियों को साधुवाद दिया जा सकता है और दिया जाना चाहिए। रूस और अमेरिका जनता औ शासन- इन दोनों में काफी दूरी बढ़ जाती है। शासन में आने वाले लोग जनता से ही आते हैं किन्तु उसकी पीठ पर बैठते ही उनकी सोच बदल जाती है। कुछ तो दायित्व का भार होता है और कुछ नया करने की महत्त्वाकांक्षा जाग जाती है। दायित्व को निभाने के लिए जागरूक रहना भी जरूरी होता है। किन्तु महत्त्वाकांक्षा जागरूकता को भयाक्रान्त बना देती है। शासक के चारों ओर भय का आभामण्डल बन जाता है। वह दूसरे राष्ट्र को भय, आशंका और आतंक की दृष्टि से देखना शुरू कर देता है। वह काल्पनिक भय अकारण ही दो राष्ट्रों को एक दूसरे का विरोधी या शत्रु बना देता है। जनता की स्थिति शासक की सोच से भिन्न होती है। वह शान्ति से जीना चाहती है और अहेतुक शत्रुता को निमंत्रण देना नहीं चाहती है। गोर्बाच्योव ने सन् 1989 में एक भेटवार्ता में बताया- इस वर्ष उन्हें अमेरिकी नागरिकों के लगभग अस्सी हजार पत्र मिले हैं। अधिकतर पत्रों में यह प्रश्न है कि सोवियत संघ और अमेरिका पहले मित्र रह चुके हैं तो अब एक बार फिर वे मित्र क्यों नहीं बन सकते? इस वक्तव्य में जनता की मनोदशा का एक स्पष्ट चित्र उभर आता है। अहिंसा के आधार-स्तंभ अभय और मित्रता- दोनों अहिंसा के आधार-स्तंभ हैं। भगवान् महावीर की अहिंसादृष्टि में जीवन और मरण महत्त्वपूर्ण तत्त्व नहीं है। उसमें महत्त्वपूर्ण तत्त्व है- जीवन में अभय और मैत्री का विकास । आज पूरे संसार को अभयदान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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