SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 256
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुप्रेक्षाएं है - विकारहेतौ सति विक्रियते येषां न चेतांसि त एव धीरा- विकार का निमित्त होने पर भी जिसका चित्त विकृत नहीं होता वह धीर होता है। यही धृति है। ब्रह्मचर्य के द्वारा धृति का विकास होता है, मनोबल का विकास होता है। लोग आश्चर्य करते हैं कि गांधी का एक मुट्ठी भर हड्डी का शरीर था । इतना दुबला-पतला, सुन्दर भी नहीं थे, चमकता हुआ चेहरा भी नहीं था किन्तु मनोबल इतना था कि बड़ी-से-बड़ी सत्ता के सामने कभी झुकने या डरने की बात नहीं आती थी। जहां मरने की बात होती वे सबसे आगे होते, कभी मन में यह भय नहीं होता कि मैं मारा जाऊंगा। ब्रह्मचर्य से आत्मविश्वास, मनोबल पैदा होता है। यह हमारी सूक्ष्मशक्ति है ब्रह्मचर्य की । इसके द्वारा आंतरिक शक्तियों का विकास होता है। उसका शरीर से कोई बहुत संबंध नहीं है, गहरा सम्बन्ध नहीं होगा, नाड़ी - संस्थान बहुत मजबूत रहेगा। स्नायुशक्ति मजबूत रहेगी। मस्तिष्क की शक्ति मजबूत रहेगी और बहुत सक्रियता रहेगी। उसका संबंध आन्तरिक शक्तियों के विकास से अधिक है, शारीरिक शक्तियों के विकास से कम है। 11. अपरिग्रह अणुव्रत की अनुप्रेक्षा प्रयोग - विधि 1. महाप्राण ध्वनि , कायोत्सर्ग जप करें। 2. 3. विशुद्धि केन्द्र पर ध्यान केन्द्रित कर अपरिग्रह अणुव्रत की अनुप्रेक्षा करें " मैं व्यक्तिगत संग्रह और भोगोपभोग की सीमा करूंगा।" - इस शब्दावली का नौ बार उच्चारण करें। फिर उसका नौ बार मानसिक 10 मिनट 4. अनुचिन्तन करें " 2 मिनट 5 मिनट 237 'नैतिकता के विकास के लिए इच्छाओं का अल्पीकरण आवश्यक है । असीमित इच्छाएं ही अतृप्ति एवं अशांति का मूल कारण है। मुझे इच्छाओं के अल्पीकरण की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए जिससे मैं जीवन में आन्तरिक शांति और सुख का अनुभव कर सकूं।" 44 'असीमित अर्थ-संग्रह और भोगोपभोग अनेक समस्याओं को जन्म देते हैं। इससे समाज में विषमता पैदा होती है। व्यक्ति क्रूर आचरण और पाशवीय व्यवहार करने पर ऊतारू हो जाता है। मैं अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति में संतुष्ट रहकर अपना जीवन बिताने का प्रयत्न करूंगा।" Jain Education International "4 'मुझे नैतिकता का जीवन जीना है, इसलिए यह आवश्यक है कि मैं परिग्रह - वृत्ति का नियंत्रण करूं।" 10 मिनट 5. महाप्राण - ध्वनि के साथ प्रयोग सम्पन्न करें। 2 मिनट For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy