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अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग ब्रह्मचर्य की तीन अवस्थाएं हैं1. पूर्ण ब्रह्मचर्य। 2. सीमित ब्रह्मचर्य। 3. अब्रह्मचर्य- उच्छृखलता।
ये तीन मार्ग हैं। एक मार्ग को तो छोड़ना है। उच्छृखलता को छोड़ना है। दो मार्ग शेष रह जाते हैं। वह अपनी शक्ति पर निर्भर है। जिसको यह लगे कि मैं पूरे ब्रह्मचर्य की साधना कर सकता हूं तो सबसे अच्छी बात है। जिसको लगे कि यह संभव नहीं है तो फिर सीमित ब्रह्मचर्य की बात हो सकती है। इसे कहा जाता है अणुव्रत की भाषा में 'स्वदार-सन्तोष'- अपनी पत्नी में सन्तोष करना। न वेश्यागमन, न परस्त्रीगमन, न कन्यागमन। इनका बिलकुल परित्याग करना। यह एक प्रकार से सीमित ब्रह्मचर्य हो गया।
जब हमारा दृष्टिकोण साफ हो जाता है और जब हम स्वास्थ्य की दृष्टि से - शारीरिक, मानसिक और आन्तरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से- विचार करते हैं तो इन दोनों में से एक रास्ते का चुनाव तो हो सकता है, किन्तु तीसरे रास्ते का चुनाव तो सर्वथा नहीं हो सकता । वह हमारे लिए सर्वथा वर्जनीय होता है।
जिन लोगों ने ब्रह्मचर्य के इन पहलुओं पर शारीरिक दृष्टि से, मानसिक दृष्टि से और आध्यात्मिक दृष्टि से तथा सामाजिक दृष्टि से विचार नहीं किया, वे ब्रह्मचर्य के बारे में बहुत गलतियां और भ्रान्तियां पालते हैं। शारीरिक दृष्टि से जैसे मनोविज्ञान का सिद्धान्त है कि यदि आदमी काम-भोग का सेवन नहीं करता है तो भी शरीर स्वस्थ नहीं रहता। यह एक बड़ी भ्रान्ति है। जो लोग ब्रह्मचारी रहते हैं वे बहुत स्वस्थ रह सकते हैं। पर ठीक यही बात है कि उसके साथ मानसिक स्तर पर विचार करना होगा कि शरीर से तो वह अब्रह्मचर्य का सेवन नहीं कर रहा है, पर मन से निरन्तर उसका सेवन कर रहा है तो वह शरीर से बच रहा है, किन्तु मन बिलकुल खुला है, तो पागलपन जरूर आ जाएगा, कठिनाई पैदा होगी उसके साथ-साथ । जब शारीरिक संयम करना है तो पहले मानसिक संयम करने की बात सीखनी होगी कि मन से कैसे सयंम करें। और मन से संयम करने की बात सीखनी है तो आध्यात्मिक संयम की बात सीखनी होगी कि भीतर के स्रावों को, भीतर के रसायनों को कैसे नियंत्रित कर सकें एवं विद्युत प्रवाहों को कैसे संतुलित कर सकें। यह साधना करनी होगी। आध्यात्मिक साधना होगी तो मानसिक साधना होगी और मानसिक साधना होगी तो शारीरिक साधना होगी।
ब्रह्मचर्य के द्वारा उपलब्ध होती है- सहिष्णुता की शक्ति, बुद्धि को प्रखरता यानी सूक्ष्म-सत्य तक पहुंचने की शक्ति। ब्रह्मचारी में इतना धैर्य होगा कि वह हर बात को सहन कर लेगा, वह अधीर नहीं बनेगा। धीर की परिभाषा करते हुए कवि कहता
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