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अनुप्रेक्षाएं
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चलता था कि हम वैसा अनुभव करें। यह हाथ है। आप भावना का प्रयोग करें कि यह ऊपर उठ रहा है। अपने आप उठेगा और आपके सिर पर लग जायेगा, आप उठाने का प्रयास नहीं करेंगे। आप भावना करें कि हाथ भारी हो गया है। आपका हाथ बहुत भारी बन जाएगा। कल्पना करें कि हाथ हल्का हो गया है, हल्का हो जाएगा। आप भावना करें कि हाथ ठंडा हो रहा है, ठंडा हो जाएगा। भावना करें कि हाथ गर्म हो रहा है, हाथ गर्म हो जाएगा। भावना हमारी चेतना को और वातावरण को बदलती है । यह ठीक भावना का प्रयोग है- आटोजेनिक चिकित्सा पद्धति । इस पद्धति के द्वारा रोगी अपने आप अपने को स्वस्थ करता है। दूसरे मार्गदर्शक की बहुत जरूरत नहीं होती। मात्र वह तो कहींकहीं सुझाव देता है। रोगी स्वयं अपनी चिकित्सा कर लेता है !
युद्ध के मैदान में सेनाएं खड़ी हैं। दोनों पक्षों की सेनाएं शस्त्रास्त्रों से लैस है । जन-बल और शस्त्रबल प्रबल होने पर भी वह सेना हार जाती है, जिसमें आत्मबल नहीं होता। रावण की बहुरूपिणी विद्या राम और लक्ष्मण के बाणों की बौछार के सामने टिक नहीं सकी। क्योंकि आत्मबल के अभाव में विद्या का बल व्यर्थ हो जाता है । विद्या, कला, मंत्र, तंत्र और दैवी शक्ति आत्मशक्ति की तुलना में अकिंचित्कर है। इसलिए हर साधक के मन में यह भरोसा होना चाहिए कि इच्छाओं से भी अनन्तगुणित शक्ति उसकी अपनी आत्मा में है ।
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तीर्थंकरों ने कहा है कि सही दृष्टिकोण से की गई क्रिया ही सफल होती है । दृष्टिकोण गलत है तो प्रयत्न करने पर भी सफलता नहीं मिलती। क्योंकि दृष्टि सही न होने से व्यक्ति की आस्था गड़बड़ा जाती है । आस्था का सूत्र हाथ में है तो जीवन की पतंग को आकाश में बहुत ऊपर तक चढ़ाया जा सकता है। आस्था की डोर हाथ से निकल जाने का अर्थ है अपने जीवन पर अपना नियंत्रण खो देना । नियंत्रण की क्षमता का विकास वह व्यक्ति कर सकता है, जिसका संकल्प प्रबल होता है । शिथिल संकल्प वाला व्यक्ति इच्छा की दासता का प्रतीक है ।
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जिस साधक का संकल्प-बल पुष्ट होता है, इच्छा-शक्ति नियंत्रित होती है, वह पदार्थ जगत् को अपने अस्तित्व पर हावी नहीं होने देता। वह जानता है कि उसके जीवन में इच्छा- स्रोत बह रहा है, निरन्तर बह रहा है। उस बहाव का संबंध बाहर से कम और भीतर से अधिक है। बाहरी प्रभाव तो मात्र निमित्त है। उसके कारण इच्छाएं व्यक्त होती हैं। इसलिए अवचेतन के जिस तल पर इच्छा की उत्पत्ति होती है, उसी तल पर उसे नियंत्रित करने की अपेक्षा है, अनुशासित करने की अपेक्षा है । नियन्त्रण की शक्ति किसमें नहीं है ? मेरे अभिमत से हर व्यक्ति निरोध की शक्ति से संपन्न है। उस शक्ति के उपयोग की क्षमता विकसित हो जाए, तो फिर यह विवशता सामने नहीं आएगी कि अनन्त इच्छाओं पर अनुशासन कैसे किया जाए ? जिस व्यक्ति को अपने आप पर अनुशासन करने की कला सीखनी है, उसे प्रथम सोपान पर इच्छाओं का नियमन करना ही होगा।
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