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अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग भय एक संवेग है, तीव्र संवेग है। जब भय की स्थिति होती है उस समय आदमी की मुद्रा दुःखद होती है और अशांति पैदा करने वाली होती है। डरे हुए आदमी के पास कोई दूसरा जाकर बैठेगा, उसके मन में भी अचानक बेचैनी पैदा हो जाएगी। यह क्यों हुआ? कैसे हुआ ? जागृति का मूल--अभय
प्रमाद भय है, अप्रमाद अभय है। भगवान महावीर ने कहा--'सव्वओ पमत्तस्य भयं'--प्रमाद को चारों ओर से भय घेर लेता है। सर्वत्र भय ही भय है उसके लिए। उसका एक क्षण भी अभय की दशा में नहीं बीतता । उसका क्षण-क्षण भय में ही बीतता है। वह किसी पर विश्वास नहीं करता। उसे सबमें अविश्वास की गंध आती है। वह अपने धन की चाबी किसी को भी नहीं सौंपता। उसके मन में भय रहता है कि कहीं वह धन लेकर भाग न जाए? बाप बेटे को भी नहीं सौंपेंगे क्योंकि आपको भय है कि धन की चाबी मिल जाने पर बेटा फिर आपको पूछेगा नहीं। उसे आपकी अपेक्षा नहीं रहेगी। आप अपनी पत्नी को भी नहीं सौंपेंगे क्योंकि आप सोचते हैं कि मां और बेटा--दोनों मिलकर मेरी फजीहत करेंगे। मेरी टिकट कटा देंगे। आप अन्तिम समय तक भी चाबी दूसरे को देना नहीं चाहेंगे क्योंकि आप में भय है। भय प्रमाद है।
कुछ लोग इसे जागरूकता भी कह देते हैं । परन्तु गहराई से सोचने पर प्रतीत होता है कि इस जागरूकता के पीछे भय काम करता है। यदि यह भय न हो कि ये बाद में मेरे साथ क्या करेंगे तो यह जागृति भी नहीं आती। इस जागृति का कारण भी भय है। कभी-कभी हम ऐसे कमरों में ठहरते हैं जहां अलमारियों में लाखों का धन पड़ा रहता है। न पहरेदार रहते हैं, न चौकीदार, केवल हम रहते हैं । मकान का मालिक सुख की नींद सोता है । वह जागरण नहीं करता, क्योंकि उसके मन में भय नहीं है कि मुनि उस धन को निकाल लेंगे। उसके मन में डर नहीं है । वह जागता नहीं, सुख से सोता है । जागना क्यों पड़ता है ? जागना तब पड़ता है जब पीछे भय हो । जहां भय नहीं है, वहां निश्चितता है।
जब भय की स्थिति आ गई हो तो उससे डरना नहीं चाहिए। पहले यह विवेक अवश्य रखना चाहिए कि कोई खतरा सहसा उत्पन्न न हो। परन्तु जब खतरा पैदा हो ही गया तो व्यक्ति की प्राण-ऊर्जा इतनी सशक्त होनी चाहिए कि वह निडर होकर उस खतरे का सामना कर सके। इस प्रकार करने से खतरा आता है और चला जाता है, व्यक्ति का कुछ भी नहीं बिगाड़ पाता । दुनिया में सब उसे सताते हैं जो कमजोर होता है, सशक्त को कोई नहीं सताता।
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