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________________ अणुव्रत आन्दोलन ___149 मां ने कहा- बेटा ! भला इसी में है कि थोड़ा लिया जाए और अधिक दिया जाए। मां की बात बछड़े के गले नहीं उतर रही थी। गृहस्वामी हाथ में आज छुरी लिये आ रहा है- यह कहते-कहते बछड़ा कांप उठा। गाय ने कहा- वत्स ! डर मत। छुरी उसी के लिए है जिसने मुफ्त में माल खाया है। इधर मेंढ़े के गले पर छुरी चल रही थी और उधर मां की बात बछड़े के गले उतर रही थी। आरामतलबी का जीवन जीने की भावना क्यों पनपती है ? इसलिए कि बचपन से ही विद्यार्थी में सामाजिक मूल्यों के प्रति निष्ठा उत्पन्न नहीं की जाती। ___ अधिक संग्रह की भावना भी इसी निष्ठा के अभाव में पनपती है। व्यक्ति में अहं की मनोवृत्ति सहज होती है। उसे निष्ठा के द्वारा परिष्कृत किए बिना वह श्रम और संतुलित व्यवस्था का समर्थन नहीं कर पाती। गतिशीलता की अपेक्षा अधिकांश लोग प्राचीनता के पक्षधर होते हैं। आधुनिकता का स्वर बहुत थोड़े लोगों में होता है। इस परिस्थिति में पुरानी और नई पीढ़ी का संघर्ष चलता है। उसमें निष्ठा को पनपने का अवसर नहीं मिलता। मैं आपको प्राचीनता के विपक्ष या पक्ष में अथवा आधुनिकता के पक्ष या विपक्ष में खड़ा करना नहीं चाहता। मैं इस विषय में अपना अभिमत आपके सामने प्रस्तुत कर देना चाहता हूं। मैं कालकृत प्राचीनता के विपक्ष में नहीं हूं। रोटी खाते हजारों वर्ष बीत गये। आज भी रोटी खाना उतना ही जरूरी है, जितना हजारों वर्ष पहले था। इसे प्राचीन कहकर हम ठुकरा भी नहीं सकते। मैं उस प्राचीनता की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूं, जिसकी आज उपयोगिता समाप्त हो चुकी है। बदली हुई परिस्थितियों में क्या दहेज का कोई मूल्य है ? समानता की दहलीज पर पैर रखती हुई समाजव्यवस्था के परिपार्श्व में क्या बड़प्पन के प्रदर्शन का कोई मूल्य है ? जिनका मूल्य समाप्त हो चुका, उनमें प्राण फूंकने का प्रयत्न रुढ़िवाद है। यह व्यक्ति की निष्ठा को तोड़ता है। सामाजिकता और आर्थिक व्यवस्था को नया मोड़ देकर ही मूल्यों की निष्ठा को विकसित किया जा सकता है। एकाग्रता का अभ्यास निष्ठा की समस्या का समाधान है मन को केन्द्रित करने का अभ्यास। यह शिक्षा का अनिवार्य अंग होना चाहिए। पुराने जमाने में माना जाता था कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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