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अहिंसा और शान्ति
स्वामित्व होगा। उसकी ऐसी चेतना ही नहीं होती है । वह सोचता है- इन रोटियों को मैं लाया हूं, यह उपार्जन मेरा है पर स्वामित्व मेरा नहीं है। उसका चिंतन होता है- पांच रोटियां पांचों में बंट जाए और प्रत्येक व्यक्ति के हिस्से में एक-एक रोटी अवश्य आए ।
तेरापंथ धर्मसंघ में संविभाग की व्यवस्था है। एक मुनि दस घरों में जाए और कुछ भी ला किन्तु जितने संभागी मुनि हैं उन्हें बराबर का हिस्सा देना पड़ेगा। वह यह नहीं कह सकता कि मैं लाया हूं तो मुझे अधिक मिलना चाहिए । उसमें सब का समभाग है । यह आध्यात्मिक सापेक्षवाद है ।
समस्या का समाधान : स्वामित्व का सीमांकन
समाज के द्वारा भी व्यक्तिगत स्वामित्व का सीमाकरण किया गया। साम्यवाद में भी अब सीमित व्यक्तिगत स्वामित्व का अधिकार दिया गया है किन्तु असीम स्वामित्व किसी का नहीं हो सकता । हिन्दुस्तान का आदमी सोचता है- मैं इतना धन कमा लूं कि सात पीढ़ियां सुखी हो जाएं। साम्यवादी देशों में यह अधिकार ही नहीं है। जहां बाप का धन बेटे को न मिले वहां सात पीढ़ी की बात ही नहीं आ सकती । व्यक्ति ने अपने जीवन में कमाया, खाया और मरने के बाद वह संपत्ति समाज की है। जहां सम्पत्ति का समाजीकरण हो जाता है वहां सात पीढ़ी की चिंता को कोई अवकाश नहीं मिलता। साम्यवाद द्वारा प्रस्तुत व्यक्तिगत स्वामित्व के सीमांकन का यह सूत्र आर्थिक जीवन की जटिलता को समाप्त करने का एक हेतु बनता है, निमित्त बनता है ।
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सापेक्षवाद के इन दो पहलुओं- आध्यात्मिक सापेक्षता और सामाजिक सापेक्षता का विस्तार किया जाए तो आशा की जा सकती है आर्थिक जीवन की जटिलताएं कम होंगी। यदि इन पर ध्यान नहीं दिया गया तो अपराध, शोषण, हिंसा, युद्ध आदि पर ध्यान देने की कोई सार्थक निष्पत्ति होगी ऐसा नहीं लगता। या तो हम स्वामित्व की सीमा के सूत्रों को पकड़ें या इस चर्चा को छोड़ दें और जो कुछ हो रहा है उसे होने दें। जो कुछ चल रहा है, उसे चलने दें, किन्तु कोई भी समझदार व्यक्ति यथास्थिति नहीं चाहता । वह समाज का विकास और समृद्धि चाहता है, समाज को स्वस्थ बनाना चाहता है । इसके लिए व्यक्तिगत स्वामित्व के सीमांकन पर उसे अवश्य विचार करना होगा ।
4.3. भावात्मक स्वास्थ्य
दो प्रकार के व्यक्ति होते हैं। कुछ लोग सदा प्रसन्न रहते हैं। कठिन परिस्थिति आने पर भी उनमें विषाद, खिन्नता और उदासी नहीं आती। वे अपनी प्रसन्नता को नहीं खोते। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं कि 24 घंटे तक विषाद उनसे छूटता ही नहीं है। सुख का अवसर हो तो भी उनका चेहरा मुरझाया हुआ रहता है । उदासी और खिन्नता टपकती ही रहती है। ऐसा क्यों होता है ? क्या परिस्थिति प्रभावित करती है?
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