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________________ 88 अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग हल्का नहीं हो रहा है। प्रश्न है उसमें हल्कापन कैसे आ सकता है ? इस आर्थिक समस्या का समाधान क्या है ? समाधान की चर्चा के संदर्भ में एक शब्द सामने आता है सापेक्षता। अनेकान्त का एक सूत्र है- सापेक्षता। मुझे लगता है- वर्तमान आर्थिक समस्या का सापेक्षता एक समाधान बन सकता है। सापेक्षता का प्रयोग दार्शनिक क्षेत्र में बहुत हुआ है। जैन आचार्यों ने दार्शनिक विरोधों को मिटाने में इस सिद्धांत का व्यापक उपयोग किया। सामान्य बात पूछी गई- यह अंगुली छोटी है या बड़ी। इसका सापेक्ष उत्तर दिया गया- अंगली छोटी भी है, बडी भी है। तीसरी बडी अंगुली की अपेक्षा से यह छोटी है। पहली या चौथी अंगुली की अपेक्षा से यह बड़ी है। सापेक्षता को समझाने के लिए एसे अनेक निदर्शन दिए गए हैं। प्रश्न किया गया- यह रेखा छोटी है या बड़ी। इसका कोई उत्तर नहीं दिया जा सकता। यदि रेखा के पास एक छोटी रेखा खींचे तो कहा जा सकता है कि रेखा बड़ी है। यदि बड़ी रेखा खींच दी जाए तो कहा जा सकता है कि यह रेखा छोटी है। अपेक्षाकृत दूरी और अपेक्षाकृत निकटता। सापेक्षता के द्वारा ही सम्यक् समाधान संभव बन सकता है। महर्षि कुत्स के हाथ में एक कमण्डलु था। उन्होंने शिष्य से पूछाबताओ, यह खाली है या भरा हुआ है। आधा पानी था उसमें । अब क्या उत्तर दे। शिष्य उलझन में पड़ गया। गुरु से ही रहस्य बताने का अनुरोध किया। महर्षि ने कहा- खाली भी है, भरा हुआ भी है। आधा पानी है, इसलिए खाली नहीं है। कमंडलु पूरा भरा हुआ नहीं है, इसलिए खाली भी है। यह है सापेक्षता। सापेक्षवाद : नया संदर्भ ___ जैन दर्शन के सापेक्षता के सूत्र ने अनेक समस्याओं को सुलझाया है। दूसरे दर्शनों ने भी यत्किंचित् इस सिद्धांत का उपयोग किया है। इस युग के महान् वैज्ञानिक आइंस्टीन ने गणित की अनेक समस्याओं का अपेक्षा के द्वारा हल प्रस्तुत किया और एक नया अपेक्षावाद विश्व के सामने अभिव्यक्त किया। अनेकान्तवाद का जो अपेक्षावाद था उसे वैज्ञानिक जगत् में एक नया संदर्भ मिल गया। वर्तमान आर्थिक समस्याओं के संदर्भ में सापेक्षवाद का प्रयोग किया जाए तो उसे एक और नया आयाम मिल जाएगा। अध्यात्म की सापेक्षता सापेक्षवाद के दो पहलू हैं- अध्यात्म-सापेक्ष और समाज-सापेक्ष । भगवतीसूत्र में एक प्रसंग है- एक मुनि अपने लिए बनाया हुआ भोजन नहीं करता। इसका कारण बतलाते हुए सूत्रकार कहते हैं- वह मुनि पृथ्वीकाय की अपेक्षा रखता है, अपकाय के जीवों की अपेक्षा रखता है। तेजस्काय के जीवों की अपेक्षा रखता है। वायुकाय के जीवों की अपेक्षा रखता है। वनस्पतिकाय के जीवों की अपेक्षा रखता है। त्रसकाय के जीवों की अपेक्षा रखता है। इसलिए वह अपने लिए बना हुआ भोजन नहीं करता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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