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एकला चलो रे
नहीं होगा ? ऐसा हो सकता है क्या ? कैसे संभव होगा ? जब अपने उपाय के प्रति, निश्चित नियम के प्रति मन में यह संदेह पैदा हो जाती है तो यह निश्चित माने कि विफलता तो आ गई, सफलता की सारी सम्भावनाएं समाप्त हो गईं।
हमारे मन में उपाय के प्रति विश्वास पैदा होना चाहिए। यह निश्चित होगा। क्यों नहीं होगा, जब नियम है तो अपना काम करेगा । हर सूत्र का नियम होता है, हर व्यवस्था का नियम होता है । सारा संसार नियमों से चल रहा है--प्रकृति का नियम, समाज का नियम, व्यक्ति का नियम । हमारे मस्तिष्क के भी संचालन के नियम हैं। हमारे नाड़ी-तंत्र के संचालन के नियम हैं । हमारे ग्रंथितंत्र के नियम हैं। कण-कण के साथं नियम जुड़ा हुआ है। फिर जो मेरा उपाय है, उसका नियम क्यों नहीं है । वह क्यों नहीं सफल होगा ? हमें नियम और नियति में विश्वास होना चाहिए।
आत्म-निरीक्षण का पांचवां सूत्र है-अभ्यास होना चाहिए। उपाय भी मिल गया। विश्वास भी हो गया पर अभ्यास नहीं है तो पूरा काम नहीं बनेगा । आज धर्म की स्थिति जो बनी है कि धर्म का परिणाम नहीं आ रहा है। धर्म से आदमी को जितना बदलना चाहिए, नहीं बदल रहा है। इसका कारण क्या है ? मैं तो यही मानता हूं कि कोर्स पूरा नहीं हो रहा है। मलेरिया है। डॉक्टर ने कोर्स दिया कि दस गोलियां लेनी हैं। चार गोलियां खायीं और छोड़ दीं। चिकित्सा पूरी नहीं हुई और मलेरिया का आक्रमण फिर हो गया। डॉक्टर के पास जाता है। डॉक्टर पूछता है-भई ! कोर्स पूरा किया या नहीं ? कोर्स तो पूरा नहीं किया। तो पहले जो ली थी वह बेकार चली गई। उसका कोई उपयोग नहीं रहा। अब नये सिरे से कोर्स करना पड़ेगा। ऐलोपैथी में तो यह चलता है कि पूरा कोर्स न हो, तब तक बीमारी का समाधान नहीं मिलता। धर्म का कोर्स भी हमारा पूरा नहीं हो रहा है । श्रवण होता है, हम धर्म को सुनते हैं। धर्म में विश्वास भी करते हैं पर कोरा सुनना और कोरा विश्वास करना पर्याप्त नहीं है। तीसरी बात हैअभ्यास होना चाहिए। ये तीनों बातें होती हैं—सुनना, सुनने के बाद उसमें विश्वास होना और विश्वास के बाद उसका अभ्यास होना, तो धर्म का परिगाम आ सकता है । हम दो में ही अटक जाते हैं। सुन भी लेते हैं, विश्वास भी कर लेते हैं, पर अभ्यास नहीं करते, प्रयोग नहीं करते । अभ्यास के बिना काम पूरा नहीं बनता । उपाय का अभ्यास होना जरूरी है ।
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