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________________ ३०६ एकला चलो रे इसका कारण क्या है ? उन्होंने कहा—कर तो रहे हैं, कारण आप ही बताएं । मैंने कहा ---मुझे लगता है कि बौद्धिक विकास का और आचरण का कोई संबंध नहीं है । बड़े से बड़ा विद्वान् और बड़े से बड़ा बौद्धिक व्यक्ति आचरण के मामले में जीरो हो सकता है और एक बिलकुल अनपढ़ आदमी आचरण के मामले में पारगामी हो सकता है । आचरण का बौद्धिकता से कोई सम्बन्ध नहीं लगता । बुद्धि का ऐसा खेल है कि समस्या पैदा करना और समस्या का समाधान देना । नयी समस्याएं पैदा करना और नये समाधान देना । बुद्धि का काम है - समस्याओं को जन्म देना और फिर समस्याओं का समाधान खोजना । समस्या और समाधान | फिर समस्या और समाधान | यह चक्र चलता रहता है। आज का जगत् बौद्धिक जगत् है, वैज्ञानिक जगत् है । मैं कोई कटाक्ष नहीं कर रहा हूं, क्योंकि मेरा भी यह विषय रहा है और आचार्य के अनुग्रह से मुझे इस बौद्धिकता के क्षेत्र में, शास्त्रों के अध्ययन के क्षेत्र में बहुत अवसर मिला है । अध्ययन के बाद मैंने अनुभव किया कि हम बुद्धि की सीमा में ही अटक जाते हैं । यह सबसे बड़ा दुर्भिक्ष है, दारिद्र्य है । गीता में कहा - इन्द्रियाणि पराण्याहुः इन्द्रियेभ्यः परं मनः । मनसस्तु परा बुद्धिः यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥ इन्द्रियां पर हैं और इन्द्रियों से पर है— मन । मन से परे है -बुद्धि । और बुद्धि से परे है परमात्मा । इन्द्रिय-चेतना, मनःचेतना और बुद्धि की चेतना- -इन तीनों स्तरों में हम लोग जी रहे हैं । और चौथा स्तर जो बुद्धि से परे है, वह है महान् । वह है परमात्मा, परमेश्वर । चाहे कुछ भी कहें, सारी जो अतीन्द्रिय चेतना है, वह बुद्धि से परे है । हमने तो सीमा मान ली है, इस सीमा से आगे बुद्धि नहीं है । इस सीमा-बोध ने युगबोध को बदल दिया । सीमा-बोध के कारण सारी अवधारणा बदल गई, इसलिए हम तनाव से भरते चले जा रहे हैं । हम रुकें नहीं, सीमा न मानें। सीमा मानना बड़ा खतरनाक होता है ! हम संभावना को मानकर चलें । मुझे जिस आचार्य का अनुग्रह मिला और जिससे विद्यादान मिला, वे हैं आचार्य तुलसी । उनसे एक बात बचपन से ही सीखी कि संभावना की स्वीकृति होनी चाहिए | संभावना को कभी समाप्त नहीं करना चाहिए । हम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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