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एकला चलो रे करने की पद्धति का बोध होता है, तब वही कार्य सरल बन जाता है । आदमी अवधि या बिना पद्धति से वर्षों तक ध्यान करता रहे, उसे मिलेगा कुछ भी नहीं। तब उसकी धारणा बन जाएगी कि ध्यान-साधना कठिन है । जब पद्धति हाथ में आ जाएगी, तब ध्यान-साधना सरल प्रतीत होने लगेगी। उन्हें लगेगा कि ध्यान-साधना आनन्द प्राप्ति का सरलतम उपाय है। आनन्द की अनुभूति है तो वह काम कठिन कैसे ? पद्धति का ज्ञान होना चाहिए।
सास ने बहू से कहा-'बहूरानी ! बाहर जा रही हूं। खयाल रखना, घर में अंधेरा न घुस जाए।' सास चली गई । सूर्यास्त हुआ । बहू भोली थी। उसने सोचा---'अब अंधेरे के आने का समय है।' उसने सबसे पहले सारे दरवाजे और खिड़कियां बन्द कर दीं। सारे रास्ते बन्द कर दिए। अंधेरे के आने के लिए कोई रास्ता खुला नहीं छोड़ा। फिर भी धीरे-धीरे अंधेरा छाने लगा। सारा घर अंधेरे से भर गया। बहू ने हाथ में लाठी ली और अंधेरे को पीटना शुरू किया। हाथ छिल गए। लहूलुहान हो गए । अंधेरा सघन होता गया। सास आयी। बहू की स्थिति देखकर बोली-'बहूरानी, अंधेरा' लाठियों से नहीं मिटता । वह दीपक जलाने से मिटता है।' सास गई, दियासलाई ली, दीपक जलाया, अंधेरा मिट गया ।
अंधेरे को मिटाने की पद्धति होती है, तकनीक होती है ।
ध्यान की भी एक पद्धति है, तकनीक है। दस-बीस वर्ष तक भी ध्यान करते रहो, यदि विधि हस्तगत नहीं है तो अंधेरा गायब नहीं होगा, यह चैत का सूर्य प्रकाशित नहीं होगा, माया और मूर्छा का तिमिर मिटेगा नहीं। यदि विधि हस्तगत हो जाए, चेतना की रश्मि प्राप्त हो जाए तो अन्धेरा गायब हो जाएगा, अन्यथा भटकाव के अतिरिक्त कुछ नहीं होगा। जब व्यवस्थित पद्धति से ध्यान किया जाता है, तब आदमी को अनेक अनुभव होते हैं और वह ध्यान को निरर्थक नहीं मानता। जब तक कोई निजी अनुभव नहीं होता, तब ध्यान उसके लिए निरर्थक होता है। __इसलिए ध्यान सरल है या कठिन, इसका कोई एक उत्तर नहीं दिया जा सकता । ध्यान कठिन भी है और सरल भी है। उपयोगिता का बोध हो गया और पद्धति हस्तगत हो गई तो ध्यान सरल है। उपयोगिता का बोध नहीं हुआ और पद्धति पकड़ में नहीं आयी तो ध्यान कठिन है । ____ आज के जन-जीवन में ध्यान की अत्यधिक उपयोगिता है । आज के लोग कहते हैं-अब धर्म उपयोगी नहीं रहा। इतनी भौतिक प्रगति और वैज्ञानिक
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