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________________ सहिष्णुता के प्रयोग २५३ भोजन ही क्या हआ ? सामान्य बोलचाल की भाषा में भी कहा जाता है कि यह तो वैसा ही फीका रहा जैसा कि बिना नमक का भोजन । अनिवार्य तत्त्व मान लिया गया कि अगर भोजन है तो नमक होना ही चाहिए। उतने से ही काम नहीं चलता, ऊपर से भी न जाने कितना लिया जाता है। रसोई बनाने वाली तो नमक डालती ही है, खाने वाला ऊपर से और नमक डालता है । यदि नमक का प्रयोग बन्द हो जाये तो दस-बीस प्रतिशत बीमारियां भी कम हो जायें। नमक के कारण लोग ज्यादा खाते हैं। गर्मी के दिन हैं। फिर भी बाजार में से निकलो, चटपटी चीजें खरीदने वालों की भीड़ लगी मिलेगी। लोग ये चीजें बड़े चाव से खाते हैं। उनका तर्क है कि चटपटी चीजें खाने के बाद जब पानी पीते हैं तो वह बड़ा स्वादिष्ट लगता है, तृप्ति देता है। ये गर्म चटपटी चीजें खाए बिना पानी भी स्वादिष्ट नहीं लगता। तो कृत्रिम स्वाद पैदा कर हमने नमक को भोजन का प्रधान तत्त्व मान लिया। जीभ को स्वाद मिले, डॉक्टरों को संरक्षण मिले, उनका धंधा चले और बीमारियां अच्छी तरह से पलें। प्रयोग शुरू करें, साधना का प्रयोग शुरू करें। इसे मैं केवल साधना का प्रयोग ही नहीं मानता, स्वास्थ्य का प्रयोग भी मानता हैं। यदि पूरे सप्ताह में सात दिन नमक न छोड़ सकें तो एक, दो, तीन दिन ही छोड़कर देखें और बिना नमक का भोजन करें। यह प्रियता और अप्रियता से बचने का प्रयोग होगा, संकल्प शक्ति का प्रयोग होगा तथा साथ-साथ स्वास्थ्य का भी प्रयोग होगा। हृदय रोग की संभावना कम होगी, अन्तर्वण (कैसर) की संभावना कम होगी । ध्यान करने वालों को उत्तेजना के वातावरण से बचना चाहिए । नमक कृत्रिम ढंग से उत्तेजना पैदा करता है, रक्त को अद्रव बनाता है । जब वह उत्तेजना नहीं होगी, मानसिक शांति में भी सहयोग मिलेगा। सूत्रकृतांग में एक चर्चा है। कुछ दार्शनिक या कुछ धार्मिक साधक लोग मानते थे कि नमक खाने वाले को मोक्ष नहीं मिलता। अलवण भोजन होना चाहिए । जो नमकीन भोजन करता है उसे मोक्ष नहीं मिलता । यह तो कहने का ढंग है। एक बात को बहुत महत्त्व दे दिया, किन्तु हमें तो उससे सार लेना चाहिए। इतना ही अर्थ इसका हो सकता है कि नमक का प्रयोग साधना के लिए वर्जित होता है और स्वास्थ्य के लिए यह विघ्न है । आयंबिल करने वाले जानते हैं, इसलिए नमक नहीं खाते । आयंबिल में कोरा एक धान्य और पानी चलता है। कितना प्रभाव होता है ! आयंबिल का प्रयोग अनेक बीमारियों को मिटाने वाला प्रयोग है। यह एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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