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अपने प्रभु का साक्षात्कार
युवराज भद्रबाहु अपने मित्र सुकेशी के साथ जा रहा था। देखा, श्मशान में मुर्दा जल रहा है । भद्रबाहु ने पूछा- 'सुकेशी ! यह क्या हो रहा है ?'
सुकेशी बोला, 'राजकुमार ! मुर्दे को जलाया जा रहा है ।' नाक-भौं सिकोड़ते हुए कुमार बोला-'कोई कुरूप होगा।' सुकेशी ने कहा---'नहीं, बहुत सुन्दर था यह !' 'तो फिर क्यों जलाया जा रहा है ?'
'मर गया और मरने के बाद जलाना ही होता है। कितना ही सुन्दर हो, जो मर गया, मरने के बाद उससे दुर्गंध आने लग जाती है। शरीर गल जाता है, सड़ जाता है । उसे जलाने के सिवाय और कोई उपाय नहीं है।'
यह सुनते ही भद्रबाहु का अहंकार चूर-चूर हो गया। उसे अपने सौन्दर्य पर बहुत गर्व था । अपने आप को बहुत सुन्दर मानता था और अपने शरीर पर बहुत गर्व था । वह एकदम चूर हो गया।
उसने सोचा-क्या इस शरीर को भी जलना होगा ? क्या यह एक दिन जल जाएगा?
भद्रबाहु जो सदा प्रसन्न रहता था, जो फूल सदा विकस्वर था, वह मुरझा गया, कुम्हला गया, उसमें सिकुड़न पैदा हो गई। प्रतिदिन यह मनोव्यथा उसे सताने लग गई । सुकेशी ने सोचा, काम अच्छा नहीं हुआ। महाराज भी चिन्तित हो गए कि राजकुमार को क्या हो गया ? क्या किया जाए ? बहुत समझाया, पर कुछ नहीं समझ पाया। आखिर सिद्धाचार्य, सिद्धयोगी, महाचार्य के पास ले गए। उन्होंने सारी स्थिति जानी और कहा-'कुमार ! तुम अभी भूल रहे हो। शरीर सुन्दर नहीं होता । सुन्दर होता है शरीर में होने वाला चैतन्य । शरीर का क्या सुन्दर और क्या असुन्दर ? तुम शरीर में मत उलझो । यह मात्र एक उपकरण है, एक साधन है । इसे इतना ही मूल्य दो जितना इसका मूल्य होता है।'
बहुत बार हम ठीक मूल्य प्रस्थापित करना नहीं जानते। जिसका मूल्य कम होता है, उसे अतिरिक्त मूल्य दे देते हैं और जिसका अतिरिक्त मूल्य होता है, उसे कम मूल्य देते हैं । ये सारी व्यवस्था की गड़बड़ियां मूल्यों की व्यवस्था
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