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श्रतीन्द्रिय चेतना
मनुष्य का व्यक्तित्व दो आयामों में विकसित होता है । उसका बाहरी आयाम विस्तृत और निरंतर गतिशील होता है । उसका आन्तरिक आयाम संकुचित और निष्क्रिय होता है । उसके बाहरी आयाम की व्याख्या स्थूलशरीर, वाणी, मन और बुद्धि के आधार पर की जाती है। उसके आन्तरिक आयाम की व्याख्या सूक्ष्म और सूक्ष्मतर शरीर, प्राण-शक्ति, प्रज्ञा ( अतीन्द्रिय चेतना) और अमूर्च्छा के आधार पर की जा सकती है। बाहरी व्यक्तित्व से हमारा घनिष्ट संबंध है । उसमें बुद्धि का स्थान सर्वोपरि है, इसलिए वह हमारे चितन की सीमा बन गयी । उससे परे पराविद्या की भूमिका है । पराविद्या
का पहला चरण है बुद्धि की सीमा का अतिक्रमण । जैसे ही प्रज्ञा का जागरण होता है, बुद्धि की सीमा अतिक्रांत हो जाती है । प्रज्ञा की सीमा में प्रवेश करते ही यह ज्ञात होता है कि बुद्धि मनुष्य की चेतना का अंतिम पड़ाव नहीं है । इन्द्रियों से परे मन है और मन से परे बुद्धि है । बाहरी व्यक्तित्व इस सीमा से आगे नहीं जा सकता । इस सीमा को पार करते ही मनुष्य का आन्तरिक व्यक्तित्व उजागर हो जाता है। वहां प्राण-शक्ति प्रखर होती है और चेतना सूक्ष्म । बुद्धि की सीमा में पदार्थ के प्रति मूर्च्छा का न होना संभव नहीं माना जाता किन्तु प्रज्ञा की सीमा में समता का भाव निर्मित होता है और अमूर्च्छा संभव बन जाती है । पराविद्या के क्षेत्र में प्राण ऊर्जा और अतीन्द्रिय चेतना का अध्ययन किया गया है किन्तु अमूर्च्छा या वीतरागता उसके अध्ययन का विषय अभी नहीं बना पाया है । यह परामनोविज्ञान की एक महत्त्वपूर्ण शाखा हो सकती है । अभी तक परामनोविज्ञान का अध्ययन चार विषयों तक सीमित है—अतीन्द्रियज्ञान (CLAIRVOYANCE ), विचार संप्रेषण ( TELEPATHY ), पूर्वा - भास (PRE-COGNITION ) और मस्तिष्कीय आन्दोलन द्वारा प्राणी जगत् और पदार्थ का प्रभावित होना (PSYCHO-KINESIS) ।
अमूर्च्छा का विधायक अर्थ है - समता । उसका विकास होने पर अतीन्द्रिय चेतना अपने आप विकसित होती है । परामनोविज्ञान के क्षेत्र में काम करने वाले लोग केवल अतीन्द्रिय चेतना के विकास की खोज में लगे हुए । यह खोज बहुत लंबी हो सकती है और अनास्था भी उत्पन्न कर सकती है ।
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