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________________ ३२८ चित्त और मन का दृष्टिकोण सम्यक नहीं है, आकांक्षा प्रबल है, प्रमाद प्रचुर है, कषाय का आवेग प्रबल और प्रवृत्ति अशुभ है, मन, वचन और काया का संयम नहीं है, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त नहीं है, प्रकृति क्षुद्र है, बिना विचारे काम करता है, ऋर है और हिंसा में रस लेता है। आभामंडल में नील वर्ण की प्रधानता हो तो माना जा सकता हैव्यक्ति में ईर्ष्या, कदाग्रह, माया, निर्लज्जता, आसक्ति, प्रद्वेष, शठता, प्रमाद, यशलोलुपता, सुख की गवेषणा, प्रकृति की क्षुद्रता, बिना विचारे काम करना, मतपस्विता, अविद्या, हिंसा में प्रवृत्ति-इस प्रकार की भावधारा और प्रवृत्ति आभामंडल में कापोत वर्ण की प्रधानता हो तो माना जा सकता हैव्यक्ति में वाणी की वक्रता, आचरण की वक्रता, प्रवंचना, अपने दोषों को छिपाने की प्रवृत्ति, मखौल करना, दुष्ट वचन बोलना, चोरी करना, मात्सर्य, मिथ्यादृष्टि-इस प्रकार की भावधारा और प्रवृत्ति है। __ आभामंडल में रक्त वर्ण की प्रधानता हो तो माना जा सकता हैव्यक्ति नम्र व्यवहार करने वाला, अचपल, ऋजु, कुतूहल न करने वाला, विनयी, जितेन्द्रिय, मानसिक समाधि वाला, तपस्वी, धर्म में दृढ़ आस्था रखने वाला, पापभीरू और मुक्ति की गवेषणा करने वाला है। आभामंडल में पीतवर्ण की प्रधानता हो तो माना जा सकता है कि यह व्यक्ति अल्प क्रोध, मान, माया और लोभ वाला, प्रशान्त चित्त वाला, समाधिस्थ, अल्पभाषी, जितेन्द्रिय और आत्मसंयम करने वाला है। आभामंडल में श्वेत वर्ण की प्रधानता हो तो माना जा सकता हैयह व्यक्ति प्रशान्त चित्त वाला, जितेन्द्रिय, मन, वचन और काया का संयम करने वाला, शुद्ध आचरण से सम्पन्न, ध्यानलीन और आत्म-संयम करने वाला अधिक मूल्यवान् है भीतर की निर्मलता कृष्ण-लेश्या का वर्ण काला होता है। कोरा वर्ण ही काला नहीं होता, उसमें दुर्गन्ध होती है। कृष्ण-लेश्या के परमाणुओं में दुर्गन्ध होती है। दुर्गन्ध भी मरे हुए कुत्ते की सड़ांध से अनन्तगुना अधिक । वह दुर्गन्ध हम अपने भीतर लिए बैठे हैं। हम बाहर की दुर्गन्ध को मिटाने के लिए कभी-कभी इत्र या सुगन्ध का प्रयोग करते हैं । उससे बाहर की दुर्गन्ध इतनी नहीं सताती। परंतु हम यह अनुभव करें कि भीतर के परमाणुओं में कितनी दुर्गन्ध है। कृष्णलेश्या का रस कड़वे तुंबे से भी अनन्तगुना कड़वा होता है। उसका स्पर्श करवत से भी अनन्तगुना ज्यादा कर्कश होता है । इस प्रकार के कृष्ण-लेश्या के परमाणुओं को हम भीतर में आभामंडल के साथ जोड़े हुए हैं। हम खड़े Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003056
Book TitleChitt aur Man
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size16 MB
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