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चित्त और मन
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सम्बन्ध रखती है | मन का कोई भी विचार, वाणी की कोई भी प्रवृत्ति, शरीर की कोई भी क्रिया और बुद्धि या चित्त की कोई भी क्रिया इस शरीर तंत्र के बिना, स्नायविक योग के बिना नहीं होती । ज्ञानवाही स्नायु और क्रियावाही स्नायु - दोनों प्रकार के स्नायु इन सारी क्रियाओं का संपादन करते हैं। किन्तु लेश्या के लिए इन स्नायुओं की कोई अपेक्षा नहीं है । यह स्नायु से परे, स्थूल शरीर से परे है। यहां यह भी स्पष्ट हो जाता है कि आत्म-नियंत्रण स्नायविक स्तर पर होता है और आत्म-शोधन लेश्या के स्तर पर होता है ।
कर्मबन्ध का हेतु है अध्यवसाय
चेतन तत्त्व और कषाय तत्त्व के बीच एक समझोता है । कषाय तंत्र का एक स्पष्ट निर्देश है कि चैतन्य के स्पंदन यदि कषाय वलय को भेद कर बाहर जाते हैं तो वे शुद्ध तभी रह सकते हैं जब वे केवल ज्ञेय के प्रति जाते हैं । ज्ञेय के सिवाय यदि वे और कहीं भी जाते हैं तो कषाय तंत्र की छत्रछाया में ही जा सकते हैं अन्यथा नहीं जा सकते । चैतन्य के जो असंख्य स्पंदन बाहर निकलते हैं, वे कषाय तंत्र को पार कर, अतिसूक्ष्म शरीर को पार कर बाहर आते हैं । उनका एक स्वतंत्र तंत्र बन जाता है । वह है अध्यवसाय का तंत्र । यह तंत्र तैजस शरीर के साथ-साथ सक्रिय होकर काम करता है । जिन लोगों ने आत्मा को जाना, आत्मा का साक्षात्कार किया, सूक्ष्मता में गए, उन लोगों ने मन को कभी महत्त्व नहीं दिया । उन्होंने सदा अध्यवसाय को महत्त्व दिया । यही एक ऐसा बिन्दु है जहां से आत्मा को शरीर से पृथक् किया जा सकता है। और उनके संबंध और असंबंध की व्याख्या की जा सकती है । मन मनुष्य में होता है, विकासशील प्राणियों में होता है । जिनके मन होता है उनके भी कर्मबंध होता है और जिनके मन नहीं होता, उनके भी कर्मबंध होता है । कर्म का बंध सब जीवों के होता है ।
प्रसंग सूत्रकृतांग का
सूत्रकृतांग सूत्र में एक सुन्दर चर्चा है । एक मनुष्य रात को सोया है । उसका स्थूल मन निष्क्रिय है । वह इतनी गाढ निद्रा में है कि स्वप्न नहीं देख रहा है फिर भी उसके हिंसा का कर्मबंध हो रहा है । यह बहुत महत्त्वपूर्ण उल्लेख है । एक ओर हम कहते हैं-- जब मन सक्रिय होता है तब कर्म का बंध होता है । दूसरी ओर कहा गया- जो व्यक्ति गाढ निद्रा में है, जिसका मन अव्यक्त है, स्थूल चेतना अव्यक्त है, स्वप्न भी नहीं आ रहे हैं फिर भी कर्म का बंध हो रहा है और वह भी हिंसा के कर्म का बंध हो रहा है । यदि दृष्टिकोण मिथ्या है तो न केवल हिंसा का कर्मबंध हो रहा है अपितु अठारह पापों का भी बंध हो रहा है । यह सुनकर शिष्य ने पूछा - "भंते ! यह कैसे हो सकता है कि सोया व्यक्ति कर्मबंध करता है ?" इस तथ्य को समझाने के लिए दो
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