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चेतना का वर्गीकरण
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यांत्रिक क्रिया है। किसी का मस्तिष्क खराब हो जाए तब मन की क्रिया नहीं होती। मस्तिष्क के माध्यम से मानसिक चेतना प्रकट होती है। जब वह माध्यम बिगड़ जाता है तब वह क्रिया नहीं होती। टेपरिकार्डर का फीता घूमा, भाषा उसमें संग्रहीत हो गयी किन्तु वह भाषा पुनः तब प्रकट होगी जब यंत्र में कोई गड़बड़ नहीं है। यंत्र में गड़बड़ होने पर भाषा संगृहीत रहेगी किन्तु प्रकट नहीं होगी। मन यांत्रिक क्रिया का प्रतिफल है इसलिए उसे अचेतन कहते हैं। वह चेतना के प्रकाश से प्रकाशित होता है इसलिए उसे चेतन भी कहा जा सकता है । उसे चेतन या अचेतन कहना हमारी अपेक्षा है। यदि मस्तिष्क की आत्मिक क्रिया को देखते हैं तो कह सकते हैं कि मन चेतन है और यदि मस्तिष्क की यांत्रिक क्रिया को देखते हैं तो कह सकते हैं कि मन अचेतन है। निष्कर्ष की भाषा है--आवृत चेतना शरीर के माध्यम से प्रकट होती है। मुख्य माध्यम दो हैं-इन्द्रिय और मन । माध्यम स्वस्थ होते हैं तब चेतना प्रकट हो जाती है और वे विकृत हो जाते हैं तब चेतना प्रकट नहीं होती। शरीर के माध्यम के बिना कुछ भी प्रकट नहीं होता-न शक्ति, न ज्ञान और न आनन्द । शरीर और चेतना का सम्बन्ध
शरीर और चेतना दोनों भिन्न-धर्मक हैं फिर भी इनका अनादि सम्बन्ध है। चेतन और अचेतन चैतन्य की दृष्टि से अत्यन्त भिन्न हैं इसलिए वे सर्वथा एक नहीं हो सकते किन्तु सामान्य गुण की दृष्टि से वे अभिन्न हैं। शरीर सम्बन्ध हो सकता हैं। चेतन शरीर का निर्माता है, उसका उसमें अधिष्ठान है इसलिए दोनों पर एक-दूसरे की क्रिया-प्रतिक्रिया होती है। शरीर की रचना चेतन-विकास के आधार पर होती है। जिस जीव के जितने इन्द्रिय और मन विकसित होते हैं, उसके उतने ही इन्द्रिय और मन के ज्ञात-तन्तु बनते हैं। वे ज्ञान-तन्तु ही इन्द्रिय और मानस-ज्ञान के साधन होते हैं। इन ज्ञान-तन्तुओं को शरीर से निकाल लिया जाए तो इन्द्रियों में जानने की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। शरीर की बनावट और चेतना का विकास
__ चेतना-विकास के अनुरूप शरीर की रचना होती है और शरीर-रचना के अनुरूप चेतना की प्रवृत्ति होती है। शरीर-निर्माण काल में आत्मा उसका निमित्त बनती है और ज्ञान-काल में शरीर के ज्ञान-तन्तु चेतना के सहायक बनते हैं।
पृथ्वी यावत् वनस्पति का शरीर अस्थि, मांस रहित होता है । विकलेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय का शरीर अस्थि, मांस, शोणितबद्ध होता है।
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