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चित्त और मन
सीमा पर ध्यान का केन्द्रित होना जरूरी है। स्थूल व्यक्तित्व
जब तक चित्त और मन की अवधारणा स्पष्ट नहीं हो जाती तब तक बहुत भ्रान्तियां पलती हैं। हमारे स्थल व्यक्तित्व के तीन घटक हैं-शरीर, मन और वाणी । यह व्यक्तित्व प्रवृत्त्यात्मक है, चंचल है । इसमें शरीर प्रधान है। यह दृश्य है। यह प्रवृत्तियों का सबसे बड़ा स्रोत है। सारी प्रवृत्तियां इसी के माध्यम से होती हैं । शरीर प्रवृत्ति का पहला स्रोत है।।
प्रवृत्ति का दूसरा स्रोत है मन । इसके द्वारा चिन्तन, स्मृति और कल्पना होती है । शरीर और मन-दोनों की प्रवृत्तियां निरंतर चालू रहती हैं। मन की प्रवृत्ति कभी-कभी रुकती है पर उसको भी हम निरंतर प्रवृत्त ही कह सकते हैं।
प्रवृत्ति का तीसरा स्रोत है-वाणी। वाणी की प्रवृत्ति निरंतर नहीं होती। बोलते हैं तब वाणी की प्रवृत्ति होती है, चिन्तन करते हैं तब भी वह होती है और स्वप्न लेते हैं तब भी वह होती हैं। इन तीन अवस्थाबों में स्वरयंत्र चालू रहता है। बोलते हैं तब स्वरयंत्र सक्रिय होता ही है पर चितन करते समय या स्वप्न देखते समय भी वह सक्रिय रहता है इसलिए वाणी की प्रवृत्ति निरंतर न होते हुए भी लम्बे समय तक रहती हैं। वह कभी अव्यक्त रहती है और कभी व्यक्त ।
__यह हमारा प्रवृत्यात्मक या स्थूल व्यक्तित्व है। मांतरिक व्यक्तित्व
हमारा दूसरा व्यक्तित्व है आन्तरिक । वह इससे भिन्न है। उसमें प्रवृत्ति स्थूल नहीं, सूक्ष्म होती है।
इन दोनों व्यक्तित्वों-स्थूल और सूक्ष्म का संचालन चैतन्य-चित्त के के द्वारा होता है। जो आन्तरिक व्यक्तित्व का संचालक है, उसे अध्यवसाय कहा जाता है । आन्तरिक व्यक्तित्व और बाहरी व्यक्तित्व-इन दोनों के बीच एक सेतु है, दोनों को जोड़ने वाला है, वह है लेश्याचित्त या भावचित्त । यह दोनों प्रकार के व्यक्तित्वों का संपर्क सूत्र है। आन्तरिक व्यक्तित्व में जो भी प्रकंपन घटित होते हैं, जिस प्रकार के संस्कारों के प्रकंपन होते हैं, उन सभी प्रकंपनों को स्थूल शरीर तक पहुंचाने का कार्य है लेश्या चित्त का, भावचित्त का। इस प्रकार एक ही चित्त क्षेत्रभेद और कार्यभेद के कारण तीन भागों में विभक्त हो जाता है-अध्यवसाय, भाव और स्थूल चेतना या बुद्धि । ये सब एक ही चेतना के विभाग हैं, इनमें चेतना अलग-अलग नहीं है। संदर्भ:प्रेक्षाध्यान
प्रेक्षा-ध्यान के संदर्भ में चित्त और मन का बहुत प्रयोग होता है।
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