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चित्त
संचालक है चित्त
स्मृति, कल्पना, मनन, ईहा, अपोह, मार्गणा, चिन्ता और विमर्श-ये सब मन के कार्य हैं । ये सारे मानसिक कार्य चित्त के सहयोग से ही सम्पन्न होते हैं। उसके सहयोग के बिना मन कुछ भी नहीं कर सकता। हाथ की अंगुलियां चलती हैं और अनेक कार्य संपंन हो जाते हैं किन्तु वे कार्य मस्तिष्क द्वारा चित्त का सहयोग प्राप्त होने पर ही संपादित होते हैं । क्रिया करना शरीर का काम है। उसका संचालन करना चित्त का काम है। ठीक इसी प्रकार मानसिक क्रिया के साथ चित्त का योग बना रहता है। इस संबंध की दृष्टि से बहुत बार चित्त और मन को एक ही मान लिया जाता है। व्यवहार में उन्हें एक मानने में कोई कठिनाई नहीं आती किन्तु ध्यान-साधना के क्षणों में यह कठिनाई उभर कर सामने आ जाती है। यदि ध्यान मन का ही एक खेल है तो फिर बंदर की स्थिरता को भी उसकी चंचलता का ही एक प्रदर्शन माना जाएगा।
__ध्यान के विकास का पहला चरण है-विकल्प ध्यान और दूसरा चरण है-निर्विकल्प ध्यान । यह समाधि की अवस्था है और ध्यान का वास्तविक स्वरूप यही है। यह स्थिति मन की सारी प्रवृत्तियों के समाप्त होने पर ही उपलब्ध होती है। दूसरे शब्दों में मन के विलय हो जाने पर ही निर्विकल्प अवस्था का अनुभव होता है । इस अवस्था में मन विलीन हो जाता है। चित्त की बत्तियां विलीन हो जाती हैं किन्तु चित्त विलीन नहीं होता। इसी बिन्दु पर चित्त और मन की पृथक्ता का अनुभव किया जा सकता है। चित्त और मन एक नहीं हैं
साधारणतया चित्त और मन को एकार्थक माना जाता है । वस्तुतः ये एकार्थक नहीं हैं। मनोविज्ञान में चित्त के अर्थ में मुख्यतया मन का ही प्रयोग किया गया है। चित्त और मन की एकता मानने पर समस्या का समाधान नहीं होता । समस्या यह है, क्या मन स्वयं संचालित है या वह किसी दूसरे के द्वारा संचालित है ? यदि वह स्वयं संचालित है तो फिर उसे वश में करने की बात निरर्थक बन जाती है, उसके व्यग्न और एकान होने की बात भी अर्थहीन हो जाती है। उसका नियामक चित्त है। उसकी व्यग्रता और एकाग्रता चित्त पर निर्भर है इसलिए चित्त और मन-दोनों की भेद
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