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चित्त और मन
मनुष्य की एक वृत्ति का उल्लेख किया है। वह है-यूथचारिता। इसका अर्थ है समूह में रहने की मनोवृत्ति। इससे ओघसंज्ञा की तुलना की जा सकती है । यह है ओघ चेतना, समष्टि की चेतना, सामुदायिक चेतना । पशुओं में भी यह चेतना है, मनुष्य में भी यह चेतना है। इसीलिए गांव बसा, नगर बसा, समाज बना। समाज में रहने की मनोवृत्ति और समाज का अनुकरण करने की मनोवृत्ति को सामुदायिक चेतना कहते हैं। हम कई बार लोगों को ऐसा कहते हुए सुनते हैं कि 'जो सबको होगा वह हमें भी हो जाएगा। क्या अन्तर पड़ेगा ? जब सब ऐसा काम करते हैं तो मैं क्यों नहीं करूं? जो परिणाम सबको होगा, वह मुझे भी हो जाएगा। मैं अकेला इससे वंचित क्यों रहूं ?' यह सामुदायिक चेतना की बात है। यह ओघसंज्ञा है। इसे यूथचारिता कहा जा सकता है। वैयक्तिक चेतना
एक है लोकसंज्ञा। यह वैयक्तिक चेतना है। प्रत्येक प्राणी में कुछ विशिष्टताएं होती हैं। इन विशिष्टताओं के कारण कुछ आचरण होते हैं । जो आचरण सामुदायिक चेतना के कारण नहीं होते किन्तु अपनी विशिष्टताओं के कारण होते हैं, वे वैयक्तिक चेतना के कार्य हैं। व्यापारी का लड़का व्यापारी, सुनार का लड़का सुनार, खाती का लड़का खाती और किसान का लड़का किसान होता है। प्रायः यह स्थिति बनती है कि पिता का व्यवसाय पुत्र संभाल लेता है। इसके पीछे एक वैयक्तिक विशिष्टता काम करती है। यह समूचे समाज में, समुदाय में नहीं मिलती। यह विशेषता व्यक्तिगत विशेषता होती है और वह उस ओर चला जाता है। यह व्यक्तिगत चेतना है। यह एक विशेष प्रकार की रुचि है। मूल स्रोत नहीं है
ये दस प्रकार की संज्ञाएं हैं। ये व्यवहार और आचरण को प्रभावित करती हैं। इन्हें आचरणों का स्रोत कहा जा सकता है।
प्रश्न होता है-क्या ये मूल स्रोत हैं? प्रश्न और आगे बढ़ गया । उत्तर होगा-ये स्रोत हैं किन्तु मूल स्रोत नहीं हैं। गंगा बह रही है । प्रवाह को रोककर बांध बना दिया गया। बांध के फाटक खोल दिये गये। वहां से पानी का प्रवाह आगे चलता है। वह बांध इस प्रवाह का स्रोत बन जाता है किन्तु वह मूल स्रोत नहीं है। मूल स्रोत को खोजने के लिए गंगोत्री तक पहुंचना होगा। गगा का मूल स्रोत है गंगोत्री। वहां से गंगा का प्रवाह प्रारम्भ होता
ये दस वृत्तियां बीच के बने हुए बांध हैं। इनके फाटक खुले हैं। इनमें से छनकर निकलने वाली चेतना आगे प्रवाहित होती है और हमारे
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