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न की शान्ति
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को भी नहीं समझ पाता । एक अनपढ़ व्यक्ति की बात छोड़ दें किन्तु बड़े-बड़े पढ़े-लिखे लोग भी समझ नहीं पाते । विरोधाभास
छोटा-सा एक गांव । पचास घरों की बस्ती । वहां कोई पढ़ा-लिखा नहीं था। जब कोई पत्र आता, वे लोग पास वाले एक नगर में जाते और पत्र पढ़ाकर आ जाते । एक दिन एक व्यक्ति पत्र लेकर नगर में गया। एक पढ़े-लिखे व्यक्ति के पास जाकर बोला-"भाई साहब ! मेरी पत्नी का पत्र आया है, पढ़कर सुना दीजिए।" उसने कहा- "बैठो, अभी सुना देता हूं।" वह पढ़ने लगा। ग्रामीण सुन रहा था। सुनते-सुनते वह अचानक उठा और पढ़े-लिखे व्यक्ति के कानों में अपनी अंगुलियां ठूस दी। वह अवाक रह गया। ग्रामीण के उस आकस्मिक व्यवहार को वह समझ नहीं सका। ग्रामीण बोला
-"क्षमा करें, मैं जानता हूं कि आपको कष्ट हो रहा है, पर मैं नहीं चाहता कि मेरी पत्नी के गुप्त समाचार आपके कानों तक पहुंचे। इसलिए मैंने यह किया है। आप आगे भी पढ़ें।"
वह ग्रामीण ही तो था। वह यह नहीं समझ सका कि पढ़ी हुई बात कानों तक पहुंचे या नहीं, कोई अन्तर नहीं पड़ता। उसमें इतना विवेक नहीं था। वह मात्र इतना ही जानता था कि मेरी पत्नी की गुप्त बात कोई सुन न ले। समस्या है महत्वाकांक्षा
यह विरोधाभास एक ग्रामीण में ही नहीं, बहुत पढे-लिखे लोगों में भी है। और मुझे तो यह लगता है कि शायद पढ़े-लिखे लोगों की समस्याएं और अधिक जटिल हैं। वे इसलिए जटिल बन गयीं कि अनपढ़ आदमी में अभी तक महत्त्वाकांक्षाएं जागी नहीं हैं । वह कल्पना नहीं करता कि इतना आगे बढ़ा जा सकता है। शायद उसमें इतनी कल्पना नहीं है। किन्तु पढ़े-लिखे लोगों के सामने बुद्धि की प्रखरता ने इतनी कल्पनाएं दे दी, महत्त्वाकांक्षाएं जगा दी, बड़े-बड़े मूल्य सामने रख दिए, जिनकी पूर्ति नहीं हो पा रही है और यह मन की अमांति के लिए बहुत अचछी सामग्री है। यह मानसिक अशान्ति और विक्षिप्तता का एक स्वर्ण अवसर है । महत्त्वाकांक्षा बहुत बढ़ जाए और उसकी पूर्ति न हो सके, इससे विकट कोई समस्या हो नहीं सकती। जब तक आदमी की महत्त्वाकांक्षा व जागे, तब तक वह शान्ति का जीवन जी सकता है। हो सकता है कि विकास का जीवन न भी हो पर शान्ति का जीवन जी सकता है। महत्त्वाकांक्षा जाग जाए और उसकी संपूर्ति न हो, उस स्थिति में क्या बीतता है । यह वही जानता है या भगवान् जानता है, कल्पना नहीं की जा सकती। इतनी बेचैनी, कठिनाई और परेशानी होती है कि उस परेशानी को
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