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मन की शक्ति
में रुचि रखते हैं और कुछ चामत्कारिक साधना को अपना ध्येय बनाते हैं । दोनों की दो दिशाएं हैं । एक दिशा मंजिल तक पहुंचाती है और एक दिशा भटकाती है । एक आत्मगामी दिशा है और एक अनात्मगामी । एक आन्तरिक यात्रा की दिशा है और एक बहिर् भटकाव की का जागरण दोनों दिशाओं में होता है । केवल योग का ।
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दिशा है। मन की शक्ति अन्तर है – उस शक्ति के उप
सबसे बड़ा चमत्कार
अध्यात्म की साधना परम की साधना है । उसमें मन की शक्ति का उपयोग अध्यात्म की दिशा में करना होता है । मन को निर्मल बनाना, आत्म-साक्षात्कार करना - यह सबसे बड़ा चमत्कार है | इससे बढ़कर दुनिया में कोई चमत्कार नहीं हो सकता । आत्म-साक्षात्र से बड़ा उपक्रम कोई है ही नहीं । इससे बड़ी कोई उपलब्धि नहीं है । जो साधक परम को पकड़ लेता है वह तुच्छ में नहीं उलझता । जो अनन्यदर्शी है वह दूसरे को नहीं देखता, स्वयं को ही देखता है । जो अनन्यदर्शी है वह दूसरे में रमण नहीं करता, स्व में ही रमण करता है । जो अनन्यदर्शी होता है वह दूसरे को नहीं चाहता, परम को ही चाहता है । जो अनन्य में रमण करता है, दूसरे में रमण नहीं करता, वह अनन्य को देख लेता है । वह अनन्यदर्शी हो जाता है ।
अनन्य का अर्थ है -आत्मा । अनन्यदर्शन की प्रक्रिया आत्मदर्शन की प्रक्रिया है । इसका तात्पर्य है— केवल आत्मा को देखना, और किसी को नहीं देखना |
गुप्ति की साधना
आत्मा को देखने के लिए मन की शक्ति का जागरण अत्यन्त अपेक्षित है । हमारा ध्येय स्पष्ट है किन्तु उस ध्येय की पूर्ति के लिए मानसिक शक्ति का स्फोट आवश्यक है ।
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मन की शक्ति को शिथिलीकरण या पूर्ण विश्रान्ति के द्वारा जगाया जा सकता है, मनोगुप्ति, वाक्गुप्ति और काय गुप्ति के द्वारा जगाया जा सकता है । डॉक्टर की भाषा में पूर्ण विश्राम का अर्थ होता है — बिस्तर पर लेटे रहना । अध्यात्मशास्त्र के अनुसार उसका अर्थ है मन, वाणी और शरीर — तीनों को सुला देना। जहां डॉक्टर केवल शरीर को सुलाता है, -वहां अध्यात्म योगी तीनों को सुला देता है । डॉक्टर कभी-कभी वाणी को - लाने की बात कहता है, मौन रहने की बात कहता है । मन को सुलाने - की बात उसे प्राप्त भी नहीं है । अध्यात्म की साधना करने वाला साधक मन की गुप्ति को साधता है, वचन की गुप्ति को साधता है और शरीर की गुप्ति
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