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________________ जो सहता है, वही रहता है जीवन में प्रतिदिन पचासों बार प्रतिक्रिया करते हैं, पचासों बार हिंसा का जीवन जी लेते हैं। बहुत बार तो ऐसा भी होता है कि हमारी श्वास हिंसा की श्वास बन जाती है। जीवन में प्रतिक्रिया के बहुत प्रसंग आते हैं। मैंने बचपन से अपना एक सूत्र बनाया कि यदि मुझे अपने जीवन में सफल होना है, कुछ काम करना है तो इस प्रतिक्रिया के चक्कर में नहीं फँसना है । जो आदमी प्रतिक्रिया के चक्कर में फँस जाता है, उसकी सारी सृजनात्मक शक्तियाँ समाप्त हो जाती हैं, केवल ध्वंस और ध्वंस ही उसके सामने बचता है। वह कोई बड़ा काम नहीं कर सकता। आखिर यह भी एक शक्ति का एक स्रोत है। ऊर्जा का प्रवाह है। उसे इधर मोड़ दें, चाहे उधर मोड़ दें। किधर भी मोड़ दें। शक्ति तो आखिर उतनी ही है, जितनी है। उसे किस दिशा में लगाना चाहते हैं, इसका चुनाव और निर्माण तो आपको ही करना है। शक्ति को ध्वंस में भी लगाया जा सकता है और सृजनात्मक कार्यों में भी लगाया जा सकता है। शक्ति को रचनात्मक बनाना है या ध्वंसात्मक बनाना है, यह चुनाव हर व्यक्ति को करना होता है। मैंने चुनाव किया और मुझे प्रसन्नता है कि मैं प्रतिक्रिया से अधिक से अधिक बचा हूँ, इसका मुझे संतोष है। मुझे याद नहीं कि किसी के प्रति शत्रुता का भाव किया हो। मुझे मालूम हो जाता है कि अमुक आदमी मेरे बारे में अनिष्ट सोच रहा है, पर मैंने हमेशा यह सोचा कि वह सोच रहा है, उसकी शक्ति नष्ट हो रही है। एक आदमी को वमन हो रही है तो क्या जरूरी है कि दूसरा भी वमन करे? अगर होता है, तो बड़ी दुर्बलता है। जिसका मनोबल दृढ़ है, वह ऐसा नहीं करता। हिंसा एक विकट समस्या है। हमारे जीवन में हिंसा के बहत प्रसंग आते हैं। प्रसंग आने पर हिंसा में न जाएँ, प्रतिक्रिया के प्रसंग आने पर प्रतिक्रिया में न जाएँ, अहिंसा और क्रिया का जीवन जी सकें तो हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि होती है। क्रियात्मक जीवन जीना अपने स्वतंत्र दायित्व का अनुभव करना है, स्वतंत्र कर्तृत्व का अनुभव करना है। जो व्यक्ति क्रियात्मक जीवन जीता है, वह कोई भी काम करता है, कर्तृत्व के आधार पर करता है, दायित्व के आधार पर करता है, किन्तु दूसरे के हाथ का खिलौना बनकर नहीं करता। प्रतिक्रिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003054
Book TitleJo Sahta Hai Wahi Rahita Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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