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जो सहता है, वही रहता है सीमा में व्यक्त होता है, उस पर्याय के आधार पर वह अपनी धारणा बना लेता है। ममकार जुड़ता है और वह कहता है कि यह मेरा है। क्यों माना कि यह मेरा है? क्या यह सत्य है? कैसे कहा जा सकता है कि यह मेरा है? जिसे मैं मेरा कहता हूँ, वह मेरा शत्रु है। जिसे मेरा नहीं मानता, पराया मानता हूँ, वह मेरा मित्र है। जिसे मेरा मानता हूँ, उसमें शत्रु छिपा बैठा है और जिसे पराया मानता हूँ, उसमें मित्र छिपा बैठा है। दोनों को ही देख नहीं पा रहा हूँ। शत्रु एवं मित्र
आदमी ने दो खेमे बना लिए हैं। एक है अपनों का खेमा, मित्रों का खेमा और दूसरा है परायों और दुश्मनों का खेमा। आदमी अनादि काल से ही धोखा खाता चला आ रहा है। जितना धोखा 'अपनों' के द्वारा होता है, उतना ‘परायों' से नहीं होता। फिर भी आदमी सब कुछ अपना मानता चला आ रहा है, क्योंकि वह व्यक्त एवं स्थूल पर्यायों में ही विश्वास करता है। वर्तमान क्षण में हित करने वाले को मित्र और अहित करने वाले को शत्रु मान लेता है। जबकि वास्तविकता यह है कि मित्रता की बातें करने वाले भी यथार्थ में शत्रु का काम कर देते हैं। माता-पिता अपने लड़के से कहते हैं कि शराब मत पीओ, व्यसनों से दूर रहो, बुरे आचरण से बचो, बुरों की संगत मत करो। लड़का मानता है कि ये मेरे शत्रु हैं। जो कहता है कि चलो, नाइट-क्लब में चलें, शराब पीएँ, नाचें, मौज करें, उसे वह मित्र मान लेता है। यह दृष्टि का विपर्यास है।
स्वर्णिम सूत्र जितना प्रबल अहंकार उतना प्रबल क्रोध। क्रोध को कम करना चाहो तो पहले
अहंकार को कम करो।
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