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समता की दृष्टि
तेरापंथ की घटना है। आचार्य ऋषिराय ने जयाचार्य को आदेश दिया कि बीदासर से बीकानेर चले जाओ। भयंकर मौसम, भयंकर गर्मी और रेतीला रास्ता । भयंकर गर्म टीले । सड़कें नहीं थीं । सत्तर मील जाना। आषाढ़ का महीना । रास्ते में पानी का नाम नहीं । धूप की समस्या और उन टीलों में से चलना । पूरा रेगिस्तान । आदेश हो गया । ऋषिराय बैठे थे मेवाड़ में और आदेश हो गया जयाचार्य को, बीदासर से बीकानेर चले जाओ । साधुओं ने सोचा बड़ी समस्या है। श्रावकों ने सोचा बहुत बड़ी बात है । न जाने क्या हो जाए ? सचमुच बात भी ऐसी थी कि प्राणांत तक हो जाए। ऐसी स्थिति भी रास्ते में आ गई, विहार करने के बाद । जयाचार्य ने स्वयं लिखा है कि पहले ही दिन प्राणांत हो जाए, ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ा। लोगों ने मिलकर कहा, 'महाराज ! अपना अनुमान है, आचार्य के आदेश को अस्वीकार तो नहीं किया जा सकता, किन्तु आप कोई गली निकाल लें, जिससे आदेश का पालन हो जाए और विहार भी न करना पड़े।' गली (बहाना) निकाल लें, जयाचार्य ने सुना । वे तत्काल बोले, 'गली निकाले कोई गंवार | क्या मैं नौकर हूँ ? गली कोई नौकर निकाले । मैं तो आदेश का पालन करूँगा ।'
गली निकालना मूर्खता होती है। समझदार आदमी कभी गली नहीं निकालता। वह अपने लक्ष्य के साथ चलता है, लक्ष्य के लिए चलता है । आलंबन गली निकालने के लिए नहीं होना चाहिए। इसलिए एक शब्द का विशेषण जोड़ा कि आलंबन पुष्ट होना चाहिए। कमजोर आलंबन नहीं चाहिए । इतना पुष्ट आलंबन कि सचमुच ऐसी स्थिति थी, परिस्थितिवश यह काम अनिवार्य हो गया, इसलिए यह करना पड़ा । कमजोर आलंबन से इन वृत्तियों को बदला नहीं जा सकता । पुष्ट आलंबन हो तो प्रतिक्रियाओं से बचा जा सकता है और उनके प्रवाह को मोड़ा जा सकता है ।
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पुष्ट आलंबन अभ्यास के द्वारा बनता है । आलंबन दोनों हो सकते हैं। एक सिद्धान्त भी आलंबन बन सकता है। एक प्रयोग भी आलंबन बन सकता
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