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जीवन में परिवर्तन नहीं सकता। वह घी को छिपा सकता है, पर डिब्बे को छिपाना नहीं जान सकता।
दो प्रकार के व्यक्ति चिंतनशून्य होते हैं-प्रत्यक्षज्ञानी और अज्ञानी। यह कैसी विचित्र तुलना है! बहुत बार ऐसी तुलनाएँ होती हैं। मान और अपमान में सम रहने वाले दो ही व्यक्ति होते हैं, या तो वीतराग इनमें सम रह सकता है या मूर्ख इनमें सम रह सकता है। कहाँ वीतराग और कहाँ मूर्ख! वीतराग व्यक्ति में असमानता के बीज नष्ट हो जाते हैं, समभाव प्रखर हो जाता है। मूर्ख में मान और अपमान के विवेक की क्षमता नहीं होती। वह दोनों को अलग नहीं कर सकता, इसलिए वह सम रहता है। कैसी विचित्र तुलना! कैसा विचित्र संयोग!
हमारे जीवन का एक महत्त्वपूर्ण घटक है, 'चिंतन' । एक ओर हम चिंतन की महत्ता स्वीकार करते हैं, दूसरी ओर निर्विकल्प या विचार शून्य अवस्था की प्राप्ति के लिए ध्यान-साधना में संलग्न होते हैं। क्या यह विसंगति या विरोधाभास नहीं है? हम इस बात को न भूलें कि निर्विचार अवस्था या
अचिंतन की अवस्था में पहुँचना हमारा लक्ष्य अवश्य है, पर वहाँ तक पहुँच पाना आज ही संभव नहीं हो सकता। यह मान लेना बहुत बड़ी भ्रांति है कि ध्यान की साधना प्रारंभ करते ही व्यक्ति विचारातीत अवस्था को प्राप्त हो जाता है। ध्यान-काल में विचारों का प्रवाह और तीव्र हो जाता है। जो विचार सामान्य अवस्था में नहीं आते, वे विचार ध्यान-काल में उभर आते हैं। जैसे ही व्यक्ति ध्यान की मुद्रा में या कायोत्सर्ग की मुद्रा में स्थित होता है, तब उसमें न आने वाले विचार भी आने लग जाते हैं। उस समय विस्मृत तथ्यों की स्मृति उभर जाती है और व्यक्ति विचारों से आक्रांत हो जाता है। इस अवस्था में आदमी आकुल-व्याकुल हो जाता है, और वह ध्यान-साधना को छोड़ने की बात सोच लेता है, परन्तु उस समय विचारों का आना तो अनिवार्य है, क्योंकि उनके उद्भव का वह एक सुंदर अवसर है। जब आदमी तनाव में होता है, तब सब उससे डरते हैं। विचार भी तब आना नहीं चाहते। जब आदमी कायोत्सर्ग की मुद्रा में होता है, शिथिल होकर बैठता है, जब सारे तनाव विसर्जित हो जाते हैं, तब विचार सोचते हैं कि चलो अब यह अच्छा अवसर है। कोई खतरा नहीं है। वे बेधड़क आते ही रहते हैं। जब तक शिथिलीकरण बना रहता है, वे अभय हो जाते हैं। शिथिलीकरण में सबका भय समाप्त हो जाता है। तनाव की
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