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जीवन में परिवर्तन
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जिसने अध्यात्म के मर्म को नहीं जाना, जिसने अध्यात्म से जागृत होने वाली अनेकांत की दृष्टि का मर्म नहीं जाना, वह अपनी दुर्बलताओं को परिस्थिति पर लाद देता है और अनुभव करता है कि मैं तो निर्दोष हूँ, दोष सारा परिस्थिति
का है।
अस्तित्व और नास्तित्व
प्रत्येक व्यक्ति 'पर' या परिस्थिति पर सारा दोषारोपण कर छुट्टी पा लेता है । अनेकांत की व्याख्या करने वाले आचार्य ने भी ऐसी ही समस्या हमारे सामने उत्पन्न की है। उन्होंने अस्तित्व और नास्तित्व, दोनों को मान्यता दी। उन्होंने कहा कि प्रत्येक तत्त्व का अपने द्रव्य की दृष्टि से अस्तित्व है, अपने क्षेत्र की दृष्टि से अस्तित्व है, अपने काल की दृष्टि से अस्तित्व है, अपने भाव की दृष्टि से अस्तित्व है । प्रत्येक तत्त्व का परद्रव्य की दृष्टि से नास्तित्व है, परक्षेत्र की दृष्टि से नास्तित्व है, परकाल की दृष्टि से नास्तित्व है, परभाव की दृष्टि से नास्तित्व है । इसका तात्पर्य है कि स्वसत्ता की अपेक्षा अस्तित्व है, परसत्ता की अपेक्षा नास्तित्व है ।
अध्यात्म की दृष्टि यहाँ कुछ गौण हो गई है। 'पर' से नास्तित्व क्यों माना जाए ? सापेक्षता की दृष्टि से विचार करें तो अस्तित्व और नास्तित्व, दोनों स्वगत होते हैं, वस्तुगत होते हैं। 'परद्रव्य' की अपेक्षा से नास्तित्व है, यह आवश्यक नहीं है। प्रत्येक पदार्थ का अस्तित्व व्यक्त पर्याय की अपेक्षा से है और नास्तित्व अव्यक्त पर्याय की अपेक्षा से है । प्रत्येक पदार्थ का अस्तित्व प्रकट पर्याय की अपेक्षा से है और नास्तित्व संभाव्य है, उनकी अपेक्षा से ही द्रव्य का नास्तित्व है ।
नेपोलियन बोनापार्ट कहता था, 'मेरे शब्दकोश में असंभव शब्द नहीं है ।' यदि इसे अहंकारपूर्ण कथन माना जाए तो यह बहुत बड़ा अहंकार है और यदि इसे तत्त्वदृष्टि मानें तो यह महत्त्वपूर्ण तत्त्वदृष्टि है ।
अनेकांत के रहस्य को समझने वाला व्यक्ति किसी भी बात को असंभव मानकर नहीं चलता। लोग कहते हैं कि मन की चंचलता को मिटाना असंभव है । यह भ्रामक धारणा है।
पारा बहुत चंचल होता है, पर उसकी चंचलता को मिटाकर गोली बनाई
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