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दिशा और दशा
युग की समस्या
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प्रश्न जीने और मरने का नहीं है। जन्म लेने वाला हर व्यक्ति मरता है। इसलिए मरना कोई अजीब घटना नहीं है । अजीब घटना है गलत मान्यता और उसके आधार पर होने वाला आचरण । इन गलत मान्यताओं ने प्रकृति के साम्राज्य में अनावश्यक हस्तक्षेप की प्रवृत्ति को जन्म दिया है । यह हस्तक्षेप मनुष्य के कर्त्तव्य को दैव या ईश्वरीय रूप दे सकता है, करने, न करने और अन्यथा करने में उसे सक्षम बना सकता है, किन्तु गलत मान्यता और गलत आचरण के कारण मनुष्य में जो क्रूरता उत्पन्न होती है, उसका समाधान कहाँ से मिले ? क्रूरता आज के युग की सबसे बड़ी समस्या है। वह करुणा को निरंतर लीलती जा रही है। क्या करुणा के बिना मनुष्य मनुष्य रह पाएगा ? जीवन और जीविका
स्वर्ग परोक्ष है। मोक्ष अत्यंत परोक्ष है। मन की शांति प्रत्यक्ष है । प्रत्यक्ष के प्रति जितना आकर्षण है, उतना परोक्ष के प्रति नहीं होता । गुरु अपने शिष्य को प्रतिपादन की शैली का अर्थ समझा रहे थे । वे बोले-धर्म अव्याकृत नहीं है । उसका प्रतिपादन किया जा सकता है। वह जीवन दर्शन का स्पर्श करनेवाला हो तो अधिक उपयोगी और अधिक आकर्षक हो सकता है। कोरी उपदेशात्मक शैली निरंतर आकर्षण उत्पन्न नहीं करती । चरित्र अथवा दृष्टान्त का सहारा लो और अपने वक्तव्य को आकर्षक बनाओ। प्रतिपादन का लक्ष्य होना चाहिए, शांतिपूर्ण जीवन का दर्शन ।
जीवन दर्शन की तीन कसौटियाँ हैं
• व्यक्ति को क्या लाभ मिल रहा है ?
• समाज को क्या लाभ मिल रहा है ?
• वर्तमान की समस्या का समाधान हो रहा है या नहीं ?
यदि परिवर्तन की समस्या सुझलती है तो भविष्य अपने आप उज्वल बन
जाता है ।
अभयारण्य
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एक राज्य की विचित्र परम्परा थी । साठ वर्ष की आयु
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