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प्रकृति एवं विकृति
१५५ की बीमारियों की एक लम्बी तालिका है, उसी प्रकार मन की बीमारियों की भी एक लम्बी लिस्ट है। इसकी अध्यात्म के क्षेत्र से तुलना करें तो वही तालिका इस क्षेत्र में भी मिल जाएगी। यह एक ऐसा बिंदु है, जहाँ स्वास्थ्य विज्ञान और अध्यात्म विज्ञान दोनों एक भूमिका पर आ जाते हैं। आयुर्वेद का सिद्धान्त है कि क्रोध मत करो। क्रोध एक बीमारी है। धर्म का सिद्धान्त कहता है कि क्रोध मत करो। क्रोध एक बंधन है। अन्तर सिर्फ भाषा का है। एक स्थान पर शब्द है बंधन, दूसरे स्थान पर शब्द है रोग। यह भूमिका का अन्तर हो सकता है, किन्तु तात्पर्य में कोई अन्तर नहीं है। इसीलिए कहा गया कि स्वस्थ रहना है तो क्रोध, लोभ का त्याग बहुत जरूरी है। विधेयक भावों का निर्माण
दुनिया में कोई भी तत्त्व ऐसा नहीं है जो न बदलता हो। सबमें परिवर्तन होता है। हृदय में भी परिवर्तन होता है। 'हृदय-परिवर्तन' इस प्रयोग का एक विशेष तात्पर्य है। यह कोई हृदय को ही बदल देना नहीं है, जैसे आज डॉक्टर करते हैं। वे कृत्रिम हृदय लगाकर आदमी को लम्बे समय तक जीवित रख लेते हैं।
____ पति और पत्नी डॉक्टर के पास गए। पति का हृदय कमजोर था। उसे बार-बार हृदय रोग हो जाता था। डॉक्टर को दिखाया। डॉक्टर ने ऑपरेशन का सुझाव दे दिया। ऑपरेशन हो जाएगा, जीर्ण-शीर्ण हृदय को बदलकर, मजबूत हृदय लगा दिया जाएगा। ऑपरेशन किया। हृदय बदल दिया गया। वह स्वस्थ हो गया।
एक बार वह पत्नी डॉक्टर से मिली। डॉक्टर ने पूछा, 'कैसे हैं तुम्हारे पति? स्वस्थ तो हैं, हृदय ठीक काम कर रहा है?' वह बोली, 'डॉक्टर महोदय ! पति बिलकुल स्वस्थ हैं। हृदय भी ठीक काम कर रहा है। पर न जाने उन्हें क्या हो गया है! वे झूठे वादे बहुत करते हैं, झूठे आश्वासन बहुत देते हैं।' डॉक्टर बोला, 'मैं ही भूल कर बैठा। मैंने जल्दबाजी में उन्हें एक राजनेता का हृदय लगा दिया।'
हृदय बदल देने मात्र से हृदय-परिवर्तन नहीं हो जाता। हम जिस हृदयपरिवर्तन की चर्चा कर रहे हैं, वह एक हृदय को निकाल उसके स्थान पर कृत्रिम हृदय लगा देना नहीं है, किसी आदमी का हृदय दूसरे आदमी पर प्रत्यारोपित
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