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जो सहता है, वही रहता है
पहुँच गया। अब कोई चोटी बाकी नहीं रही जहाँ आरोहण करना हो, चढ़ना हो । वीतरागता सर्वोच्च शिखर या परम बिंदु है । अध्यात्म की फलश्रुति है वीतरागता । अध्यात्म की आराधना इसलिए की जाती है कि वीतरागता उपलब्ध हो जाए। जो व्यक्ति वीतरागता की दिशा में प्रस्थान कर देता है, उसके लिए भी मानसिक बीमारी का प्रश्न नहीं होता। वीतरागता के लिए तो है ही नहीं । ध्यान की साधना वीतरागता की दिशा में प्रस्थान है । व्यक्ति ध्यान करता है चित्त की निर्मलता के लिए । चित्त की निर्मलता का अर्थ है वीतरागता की दिशा में प्रयाण । जैसे-जैसे चित्त की निर्मलता बढ़ती जाएगी, वीतरागता का लक्ष्य निकट आता जाएगा। राग और द्वेष दोनों मलिनता पैदा करते हैं । द्वेष की मलिनता का हमें पता चल जाता है, किन्तु राग की मलिनता की कोई जानकारी नहीं होती। वस्तुतः दोनों ही फैक्ट्रियों के जहरीले रासायनिक द्रव्य हैं, जो हमारे चित्त को मैला और विषैला बना देते हैं । विवेक
एक आदमी बड़ा क्रोधी है, लालची है । वह समझता है कि यह कोई बुराई नहीं है, किन्तु ठंडे दिमाग से सोचें तो पता चलेगा कि लोभ भी एक बड़ी मानसिक बीमारी है । आज यह मान लिया गया कि महत्त्वाकांक्षा मात्र जीवन चलाने के लिए हो तो उसे उचित मान लिया जाए, किन्तु वह असीम बन जाए तो एक बीमारी ही कहलाएगी। स्वयं बड़ा बने, बेटा भी बने और पोता भी बने, यह महत्त्वाकांक्षा जागे तो बड़ा बनने के उचित-अनुचित तरीकों का विवेक भी समाप्त हो जाएगा। आज समाज में तेजी से फैल रहा भाईभतीजावाद भी मानसिक रुग्णता का ही परिणाम है। आज राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र का विश्लेषण करें तो मानसिक दृष्टि से रुग्ण व्यक्ति ज्यादा मिलेंगे और स्वस्थ व्यक्ति बहुत कम मिलेंगे। ज्यादातर आदमी अपनी बुद्धि से नहीं चलते, अपनी मनीषा से नहीं चलते। अपनी बुद्धि या विवेक से चलने वालों की संख्या कम है ।
महत्त्वाकांक्षा
मानसिक बीमारी का प्रमुख कारण महत्त्वाकांक्षा है । प्रतिस्पर्द्धा के इस युग में इसीलिए मानसिक रूप से स्वस्थ लोगों की संख्या कम है । अस्वस्थ लोगों की संख्या ज्यादा हो सकती है। काम, क्रोध, लोभ, मोह मानसिक बीमारियाँ हैं । जिस प्रकार सिरदर्द, पेटदर्द, घुटने का दर्द, बुखार आदि शरीर
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