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________________ अपना आलंबन स्वयं बनें १३३ संवेदन पदार्थ से जुड़ा हुआ होता है। किसी वस्तु को जानते हैं तो हमारा संवेदन इंद्रिय के साथ जुड़ा रहता है। हमारा ज्ञान वस्तु को जानने में व्याप्त रहता है। मन किसी विषय का चिंतन करता है, स्मृति अथवा कल्पना करता है, तो मन का संवेदन पदार्थ के साथ जुड़ा रहता है। इंद्रिय और मन का निरोध __ बाह्य जगत में सारा व्यापार इंद्रिय और मन के माध्यम से होता है। पहला स्रोत बनता है इंद्रिय और दूसरा स्रोत बनता है मन । जब इंद्रिय और मन दोनों का निरोध हो जाता है, उस अवस्था में अतीन्द्रिय प्रकट होता है। वह है हमारी स्वसंवेदन की अवस्था। इसी का नाम है-आत्मा का साक्षात्कार। कोई भी व्यक्ति ध्यान के आधार पर, श्रुत ज्ञान के आधार पर, तत्त्व चर्चा के आधार पर, आत्मा का साक्षात्कार नहीं कर सकता, स्वसंवेदन की भूमिका तक नहीं जा सकता। स्वसंवेदन की भूमिका में वही व्यक्ति पहुँच पाएगा, जिसने इंद्रियों और मन का निरोध करना सीख लिया है। ध्यान का सारा उपक्रम इसलिए है कि इंद्रियों की चंचलता कम हो, हमारी एकाग्रता बढ़े। उसके लिए दीर्घकालीन साधना आवश्यक है। उस अवस्था में अज्ञात भी ज्ञात हो जाएगा। शक्ति का संचार ध्यान के विषय में सारे दार्शनिकों के मत एक नहीं हैं। एक का मत है कि जहाँ मन नहीं है, इंद्रियों का व्यापार नहीं है, वहाँ उस अवस्था में अभाव की स्थिति बन जाती है। साक्षात्कार में यह बात संभव नहीं है। दर्शन में कुछ अभाव तो मानते हैं, किन्तु जहाँ ज्ञान का अभाव है, वहाँ ध्यान नहीं होगा, जड़ता हो जाएगी। ज्ञान का अभाव है जड़ता, किन्तु ध्यान होने का मतलब है स्वसंवेदन का जागना। यह जड़ता नहीं है। यह इंद्रिय तथा मन का अभाव जड़ता नहीं है, विशेष शक्ति का जागरण एवं संचार है। मन का निरोध जैन साधना की प्रक्रिया में संभव है, पतंजलि की साधना में संभव है, किन्तु बौद्ध परम्परा में संभव नहीं है। इसका कारण है कि जैन दर्शन आत्मा को मानता है, चित्त को स्वीकार करता है। चित्त आत्मा की एक रश्मि है। मन न आत्मा है, न चित्त है। बौद्ध दर्शन में मन ही सब कुछ है, तो निरोध किसका करेंगे! मन का निरोध करने पर कुछ नहीं बचेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003054
Book TitleJo Sahta Hai Wahi Rahita Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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