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व्यक्तित्व के विविध रूप
. ९५ मिटाना चाहती है। सब लोग मिटाना चाहते हैं, पर बुराइयों में क्या जादू है, कितनी ताकत है, कितनी शक्ति है कि वे और अधिक पनपती जाती हैं, उनकी पौध बढ़ रही है। न जाने उन्हें कहाँ से सिंचाई मिल रही है ! वे खुशहाल हो रही हैं। आदमी शायद कभी-कभी बर्बाद हो जाता है, लेकिन बुराइयाँ तो आबाद हो रही हैं। आखिर बुराइयों को किसका संरक्षण प्राप्त है? आदमी किसके संरक्षण से वंचित है? यह हमारे सामने बहुत बड़ा प्रश्न है। मुझे प्रतीत होता है कि इस प्रश्न पर हमने कभी गंभीरता से चिंतन नहीं किया। यदि हमारा चिंतन गंभीर होता तो हम ठीक मूल की बात तक पहुँच पाते और समाधान खोज पाते। पर हम तो केवल बुराइयों को मिटाना चाहते हैं। हिंसा एक परिणाम है। क्रोध एक परिणाम है। बुराई एक परिणाम है। कोई आदमी मिलावट करता है, जमाखोरी करता है, संग्रह करता है, ये सब परिणाम हैं। अनुशासनहीनता एक परिणाम है। हम परिणाम को मिटाना चाहते हैं, मूल बात को मिटाना नहीं चाहते। मूल जब तक विद्यमान है, तब तक ये परिणाम तो आते ही रहेंगे। मूल जब मजबूत है, ये परिणाम फलते-फूलते रहेंगे। क्रोध अपने आप नहीं आता । क्रोध के नीचे एक प्रवृत्ति होती है और उसके नीचे एक वृत्ति होती है। जब तक वृत्ति को मिटाने की बात हम नहीं सोचते, तब तक प्रवृत्ति को भी नहीं मिटाया जा सकता और परिणाम को भी नहीं मिटाया जा सकता।
मनोवैज्ञानिकों ने वृत्तियों का विश्लेषण किया है। मनुष्यों में कुछ मौलिक वृत्तियाँ होती हैं और उन वृत्तियों के आधार पर उनकी सारी प्रवृत्तियाँ चलती हैं। धर्मशास्त्रों ने वृत्तियों और प्रवृत्तियों का बहुत गहरा विश्लेषण किया। उन्होंने कभी नहीं कहा कि प्रवृत्तियों को मिटाओ। मैं अनेक बार, विशेषतः उन लोगों से एक प्रश्न करता हूँ, जो दीक्षित होना चाहते हैं, घर से विरक्त होकर संन्यास लेना चाहते हैं, श्रमण बनना चाहते हैं, कि क्या अहिंसा को साधा जा सकता है? क्या ब्रह्मचर्य को साधा जा सकता है? क्या अपरिग्रह को साधा जा सकता है? लोग कहते हैं कि ये सब साधे जा सकते हैं। हमने संकल्प कर लिया है कि हिंसा नहीं करेंगे, झूठ नहीं बोलेंगे, चोरी नहीं करेंगे, अब्रह्मचर्य का सेवन नहीं करेंगे, परिग्रह नहीं रखेंगे।
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