________________
व्यक्तित्व के विविध रूप विराट सत्य! आयुष्य उस सत्य की तलहटी को भी नहीं छू पाता। स्यात् शब्द की सार्थकता
केवली, भगवान या सर्वज्ञ अनंत सत्य को जान लेते हैं, किन्तु उनमें भी यह क्षमता नहीं है कि वे अनंत सत्य को कह सकें। यह असंभव है। कोई महान व्यक्ति, ज्ञानी व्यक्ति, दस-बीस या पचास पर्यायों की अभिव्यक्ति कर सकता है। पूरे सत्य को वह कभी नहीं कह सकता। उसके द्वारा प्रतिपादित सत्य के कुछेक पर्यायों को पूर्ण सत्य मानकर अवशिष्ट पर्यायों को हम अस्वीकार कर देते हैं, नकार देते हैं, तब सत्य से हटकर असत्य की ओर चले जाते हैं। इसलिए अनेकांत ने एक युक्ति प्रस्तुत की। उसने कहा, 'तुम असत्य से बच सकते हो, यदि ‘स्यात्' शब्द का सहारा लेकर चलते रहो। जो कुछ कहा, उसके साथ स्यात् शब्द लगा लो। यह तुम्हें असत्य से बचा लेगा।' स्यात् का यहाँ भावार्थ होगा-'मैं पूर्ण सत्य कहने में असमर्थ हूँ। सत्य का एक पर्याय मात्र प्रस्तुत कर रहा हूँ।'
प्राचीन साहित्य में 'स्यात्' शब्द के अनेक अर्थ मिलते हैं। मैं उसे नए अर्थ में प्रस्तुत करना चाहता हूँ। 'स्यात्' शब्द का अर्थ है अपनी अक्षमता का स्वीकार, भाषा की अक्षमता की स्वीकृति। ‘स्यात्' शब्द का प्रयोग करने वाला व्यक्ति यह स्वीकृति पहले ही देता है कि मैं जो कह रहा हूँ, उसे पूर्ण सत्य मत मान लेना, उसे निरपेक्ष सत्य मत मान लेना, अखंड सत्य मत मान लेना। मैं केवल सत्य के एक पर्याय का, एक अंश का ही प्रतिपादन कर रहा हूँ। तुम्हें केवल एक अंश से परिचित करा रहा हूँ। साथ ही साथ मैं पूर्ण सत्य की अभिव्यक्ति में अपनी असमर्थता भी प्रकट करता हूँ। मैं पूरा सत्य नहीं कह सकता। तुम्हें सत्य के निकट ले जा रहा हूँ। यह है 'स्यात्' शब्द की सार्थकता।
एक विद्यार्थी घर आकर माँ से बोला, 'माँ! आज मुझे पुरस्कार मिला है। प्रतियोगिता थी। प्रश्न पूछा गया था। मैंने उत्तर दिया।' माँ ने कहा, 'तुम्हारा उत्तर सही था, इसीलिए पुरस्कार मिला।' उसने कहा, 'मेरा उत्तर पूरा सही नहीं था, किन्तु सत्य के निकट अवश्य था, इसीलिए पुरस्कार मिला।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org