________________
अग्नि का नियम
यौगलिक युग में भगवान ऋषभ के समय अकस्मात् अग्नि प्रकट हो गई । उससे पहले अग्नि नहीं थी । जैन दर्शन का अग्नि के लिए एक नियम है- स्निग्धकाल में अग्नि पैदा नहीं होती, अत्यन्त रुक्षकाल में अग्नि पैदा नहीं होती । अग्नि को पैदा होने के लिए स्निग्ध-रुक्ष वातावरण चाहिए। आज की भाषा में स्निग्ध का अर्थ है पोजिटिव चार्ज और रुक्ष का अर्थ है नेगेटिव चार्ज | पोजिटिव और नेगेटिव - दोनों होते हैं तब अग्नि पैदा होती है । बंधन भी तभी होता है, जब स्निग्ध और रुक्ष दोनों होते हैं । स्निग्ध की स्थिति 'बनी, अग्नि पैदा हो गई । मनुष्य ने पहले कभी अग्नि देखी नहीं थी । वे डरकर भागे और भगबान् ऋषभ के पास आये । बोले- जंगल में पता नहीं क्या आया है, सबको जलाता जा रहा है । भगवान् ने अपने ज्ञान से जान लिया और कहा - 'डरने की कोई बात नहीं है । अग्नि पैदा हुई है। तुम लोग कहते थे कि हम लोग जो खाते हैं, वह पचता नहीं है । अब इस अग्नि में अन्न पकाओ और खाओ, सब पच जायेगा । लोग प्रसन्न हुए । जो अन्न था, सब अग्नि में डाल दिया और सब स्वाहा हो गया। वे फिर ऋषभ के पास आए और बोले- भगवन् ! पता नहीं क्या है, हमने जितना भी डाला, वह अग्नि सब खा गई । ऐसा इसलिए हुआ कि उस समय लोग सत्य को जानते नहीं थे ।
सुख है सत्य की खोज
सत्य को न जानने के कारण अनेक समस्याएं पैदा होती हैं । एक सूत्र समझ में आ जाए दुःखों को बांटने का, उसे मिटाने का तो यह समस्या हल हो जाए । दुःख को मिटाने का सबसे शक्तिशाली साधन है सत्य का साक्षात्कार | युनिवर्सल टूथ या जागतिक नियम जान लें तो बहुत सारे कष्ट कम हो जाते हैं । आचार्य ने कहा- वह व्यक्ति उत्तमोत्तम है, जो स्वयं सत्य का साक्षात्कार करता है और दूसरों को सत्य के साक्षात्कार का मार्ग बताता है । वह सबके दुःख का विनाश करने वाला है, सबके दुःख को मिटाने वाला
४४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
जैन धर्म के साधना - सूत्र www.jainelibrary.org