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अत्यन्त उपादेय हैं, महत्त्वपूर्ण हैं । बाधक तत्त्व चार हैं- अजीव, पुण्य, पाप और बंध | ये चारों आध्यात्मिक विकास में बाधक बनते हैं । हम साधना के साधक तत्त्वों का विमर्श करें ।
प्रक्रिया-संवर की
साधना का एक साधक तत्त्व है- संवर | संवर के पांच प्रकार हैंसम्यक्त्व, व्रत,अप्रमाद, अकषाय, और अयोग । सबसे पहले चंचलता का निरोध करना है । हम इस भाषा में समझें, स्वतः चालित क्रिया चलती रहे
और इच्छाचालित क्रिया को बंद कर दें । इससे आंशिक निरोध हो गया, पूर्ण निरोध नहीं हुआ। किन्तु ऐसा करते करते एक अवस्था आती है, स्वतःचालित
और इच्छाचालित- दोनों क्रियाएं रुक जाती हैं। जहां कोई विचार नहीं होता, आलंबन नहीं होता वहां पूर्ण निरोध होता है । पारिभाषिक शब्दावली में कहा जा सकता है- सबसे पहले योग का निरोध करें, योग को रोकने का अभ्यास करें । योग कम होगा तो कषाय कम होता चला जाएगा, अकषाय संवर पुष्ट बनेगा । इससे एक बात स्पष्ट होती है-जितनी हमारी चंचलता है उतनी ही उत्तेजना है । क्रोध, मान, माया और लोभ- इन सबका प्रकोप होता है चंचलता के कारण । आवेश कम होंगे तो प्रमाद भी कम हो जाएगा । प्रमाद कम होगा तो आकांक्षा कम हो जाएगी, अविरति कम हो जाएगी, व्रत संवर का विकास होने लगेगा । जब यह सब घटित होगा, तब मिथ्या-दर्शन कहां टिकेगा ? तत्त्वज्ञान की दृष्टि से प्रथम है सम्यक्त्व और साधना की दृष्टि से प्रथम है योग का निरोध, अयोग संवर | यह संवर की प्रक्रिया है |
प्रक्रिया शोधन की
शोधन की प्रक्रिया में सबसे पहले आहार-शुद्धि पर ध्यान दें, उसके बाद गति-क्रिया पर ध्यान दें। उसका उपाय है- कायक्लेश । काया को साधे । उसके बाद इन्द्रियों को साधे । आयुर्विज्ञान में अब तक इस पर बहुत ध्यान नहीं दिया गया है | इन्द्रियों की क्रिया से भी बीमारियों का गहरा संबंध है | इंद्रियों की अति चंचलता और लोलुपता बीमारियों को निमन्त्रण देती है ।
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जैन धर्म के साधना-सूत्र
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