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कठोर श्रम चाहिए । कमजोर आदमी ध्यान नहीं कर सकता । जिसका मन
और प्राणशक्ति दुर्बल है, वह ध्यान कैसे कर पाएगा? ध्यान में प्रबल पुरुषार्थ चाहिए | वस्तुतः निवृत्ति का अर्थ पुरुषार्थहीनता नहीं है | कहना चाहिएप्रवृत्ति है पुरुषार्थ और निवृत्ति है परम-पुरषार्थ । निवृत्ति में अधिक पुरुषार्थ करना होता है, इसीलिए ध्यान से गर्मी बढ़ जाती है, उष्मा बढ़ जाती है, वजन घट जाता है। प्रबल पुरुषार्थ है- मन को एकाग्र करना, मन की चंचलता का निरोध करना । ध्यान में मन की अशुभ प्रवृत्ति का निरोध किया, संवर हो गया और मन की शुभ प्रवृत्ति की, निर्जरा हो गई । ध्यान के द्वारा शोधन
और निरोध- दोनों होते हैं । केवल ध्यान ही नहीं, तपस्या के जितने प्रकार बतलाए गए हैं, उन सबसे निरोध भी होता है, संवर भी होता है, निर्जरा भी होती है।
व्यापक सिद्धान्त
बहुत व्यापक है तपस्या का सिद्धान्त ! उदार दृष्टिकोण से प्रतिपादित हुआ है तपस्या का सिद्धान्त । कहा गया-तुम शरीर, वाणी और मन-इन तीनों का प्रवर्तन करो तो ऐसा करो कि तुम्हारा शोधन हो जाए । इनका निवर्तन करो तो ऐसा करो कि तुम्हारा संवरण हो जाए । इस आधार पर हमारी पुरुषार्थ की क्रिया तीन भागों में बंट जाती है । एक प्रवर्तन वह है, जो बाहर से गंदगी को खींचता है, बुरे विचारों और बुरे प्रभावों को खींचता है, बुरे कार्यों का आकर्षण करता है । एक प्रवर्तन वह है, जो केवल सत् का आकर्षण करता है, बुराई का आकर्षण नहीं करता । यह दूसरा प्रवर्तन है । तीसरा है निवर्तन । न सत् का ग्रहण और न असत् का ग्रहण सत्-असत्-दोनों का निवर्तन । ध्यान करने वाला व्यक्ति असत् का निरोध करता है, वह संवर है । वह सत् का प्रवर्तन करता है, यह तपस्या है । उसके बाद वह बिलकुल निवृत्ति में चला जाता है, सत् और असत्-दोनों का निरोध कर देता है । _हमारी प्रवृत्ति त्रि-आयामी है । इस प्रवृत्ति-चक्र के साथ हमें चलना है । प्रश्न है-हमारा क्या काम होना चाहिए ? हमारा दृष्टिकोण कैसा होना चाहिए ? हम यह ध्यान दें- चौबीस घंटे में असत् का प्रवर्तन कितना होता
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जैन धर्म के साधना-सूत्र
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