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को आनुवंशिक प्रभाव प्रभावित करते हैं, परिस्थिति और परिवेश भी प्रभावित करते हैं । हो सकता है, कुछ बीमारियों के संदर्भ में यह तर्क संगत प्रतीत हो किन्तु आचरण के प्रसंग में, जहां सुख और संवेदन का प्रश्न है यदि आनुवंशिकता का सिद्धान्त काम करेगा तो आचरण का सारा सिद्धान्त समाप्त हो जाएगा, आचरण शास्त्र की मर्यादाएं, नैतिकता की सीमाएं समाप्त हो जाएंगी।
मूल है उपादान ___आनुवंशिकता का सिद्धान्त जीवन के एक पहलू का स्पर्श करता है । जहां शरीर रचना, स्वास्थ्य अथवा कुछ मानसिकता का प्रश्न है वहां इसे कारण माना जा सकता है किन्तु जीवन की जो विविधता है, नानात्व है, उसकी व्याख्या आनुवंशिकता के आधार पर नहीं की जा सकती । परिस्थिति और परिवेश भी व्यक्ति को प्रभावित करते हैं किन्तु वे उपादान नहीं बन सकते । चाक और डंडा घड़ा बनने में निमित्त बन सकते हैं पर वे घड़ा नहीं बन सकते । उपादान ही नहीं है तो कोरा परिवेश या परिस्थिति क्या कर पाएगी? हम इनको स्वीकार करते हुए भी उपादान की बात पर आएं । मूल बात हैउपादान ।
क्रिया : प्रतिक्रिया
___ दो महत्त्वपूर्ण शब्द हैं- कृत और प्रतिकृत, क्रिया और प्रतिक्रिया । व्यक्ति क्रिया की प्रतिक्रिया करता है । जब तक वह प्रतिक्रिया का जीवन जीता है, तब तक उसे उसका परिणाम भुगतना होता है । इसी आधार पर हम आचरण की मर्यादाएं निर्धारित कर सकते हैं । यदि प्रतिष्ठा, सुख, स्वास्थ्य
और दीर्घ आयुष्य की आकांक्षा है तो जीवन का व्यवहार उसके अनुकूल होना चाहिए, प्रतिकूल नहीं । एक आदमी में आत्म-प्रशंसा और पर-निन्दा करने की आदत है । नीतिशास्त्र के अनुसार यह महान् दोष माना जाता है । इसका परिणाम है- अप्रतिष्ठा का अर्जन | कर्मशास्त्र की भाषा में इसका परिणाम है- नीचगोत्र का अर्जन । जब उसका विपाक आता है, व्यक्ति को
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जैन धर्म के साधना-सूत्र
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