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पकड़ लेगा । इसलिए वैज्ञानिक दृष्टि से इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया- पहले कायगुप्ति करो, फिर वचन की गुप्ति करो, मन की गुप्ति स्वतः हो जाएगी। खिचड़ी को सीधा बीच से ही खाना शुरू न करें, किनारे से शुरू करें । जो सीधे मन को पकड़ने की बात करते हैं, वे अज्ञानी हैं। पहले शरीर को साधो, फिर वाणी को साधो, मन सध जाएगा ।
प्रवृत्ति और निवृत्ति का संतुलन
प्रत्येक प्रवृत्ति जीवनी-शक्ति को क्षीण करती है इसलिए प्रवृत्ति के साथ निवृत्ति आवश्यक है । दीर्घ आयु के जितने प्रयोग हैं, उनमें सर्वाधिक शक्तिशाली प्रयोग है प्रवृत्ति और निवृत्ति का संतुलन । इसका तात्पर्यार्थ हैअनावश्यक प्रवृत्ति मत करो । प्रयोजन के दीवट पर प्रवृत्ति का दीप जलता है तब अपने आप उसकी सीमा हो जाती है । प्रत्येक प्रवृत्ति की संपन्नता पर निवृत्ति का प्रयोग हो तो प्रवृत्ति और निवृत्ति का संतुलन हो जाता है । वाणी की प्रवृत्ति के पश्चात् मौन का अभ्यास आवश्यक है और उसके लिए आवश्यक है कंठ का कायोत्सर्ग, स्वर यंत्र की शिथिलता का अभ्यास | मानसिक प्रवृत्ति को संतुलित करने के लिए आवश्यक है एकाग्रता अथवा निर्विकल्प ध्यान का प्रयोग । ध्यान से बहुत लोग परिचित हैं । मौन के विषय में भी जानते हैं । कायोत्सर्ग के विषय में जानना जरूरी है । I
आधारभूत तत्व
कायोत्सर्ग का शाब्दिक अर्थ है शरीर का त्याग व शरीर की प्रवृत्ति का त्याग । इसके आधारभूत तत्व तीन हैं :
१. शिथिलीकरण
२. जागरूकता
३. ममत्व विसर्जन ।
शिथिलीकरण के लिए सर्वप्रथम शरीर को तनाव देना आवश्यक है । लेटकर दोनों हाथों को सिर की ओर जितना फैला सकें, उतना फैलाएं। फिर पैरों को आगे की ओर, और हाथों को सिर के पीछे की ओर जितना तनाव
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