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शरीर की मूल्यवत्ता
शरीर का बहुत महत्त्व क्यों है ? इसलिए है कि मन शरीर से बहुत प्रभावित होता है। आयुर्वेद में तीन दोष माने गए हैं- वात, पित्त और कफ । ये तीनों मन को प्रभावित करते हैं। शरीर में वायु का प्रकोप बढ़ जाने से अकारण भय लगने लगता है, मन की चंचलता बढ जाती है । यदि पित्त बढे तो गुस्सा ज्यादा आने लग जाएगा, चिड़चिड़ापन बढ़ जायेगा, उत्तेजना बढ़ जाएगी । कफ की वृद्धि लोभ पैदा करती है । मेडिकल साइन्स में माना जाता है - मनुष्य का व्यवहार - आचार हार्मोन्स के आधार पर निर्मित होता है और उसमें भी विशेषकर न्यूरोट्रांसमीटर के आधार पर बनता है। जैसा न्यूरोट्रांसमीटर होता है, वैसा ही आचार और व्यवहार होता है । वात, पित्त और कफ इसी शरीर में पैदा होते हैं और न्यूरोट्रांसमीटर भी इसी शरीर में पैदा होते हैं। शरीर मन को प्रभावित करता है । इसलिए सबसे पहले शरीर पर ध्यान दें, इसे ऐसा बनाएं, जिससे शरीर में पैदा होने वाले रसायन और त्रिदोष हमारी वृत्तियों को प्रभावित न करें। सबसे पहले शरीर पर ध्यान दें, मन पर उसके बाद ध्यान दें ।
दर्शन के आधार पर भी हम शरीर की मूल्यवत्ता को समझ सकते हैं । महावीर ने कायोत्सर्ग पर बहुत बल दिया- सबसे पहले तुम शरीर को त्यागना या छोड़ना सीखो । जो कायोत्सर्ग करना जानता है उसका वात, पित्त, कफ संतुलित रहेगा । इसका मतलब है- इन तीन दोषों की विषमता से जो होगा, उसका नाम है रोग | तीनों दोष सम हुए, इसका नाम है आरोग्य |
धातुएं सम रहें
बहुत वर्ष पहले की बात है । गुजरात से डा० लालन और गोकुलभाई भट्ट पूज्य गुरुदेव के दर्शन करने आए। उन्होंने कहा - साधु इतने बीमार क्यों होते हैं ? इस पर बहुत विचार विमर्श हुआ । उन्होंने कहा- मैंने एक कारण खोजा है । वह यह है कि साधु गोचरी जाते हैं । घण्टों घूमते हैं । गोचरी से आते हैं तुरंत आहार करने लग जाते हैं । यह बीमारी का खास कारण है। श्रम होता है तो धातु विषम बन जाती है, वात, पित्त, कफ विषम
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जैन धर्म के साधना सूत्र
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