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महत्त्व व्रत का
भारतीय चिंतन में व्रत का बहुत महत्त्व रहा है । इसका बहुत विकास भी हुआ है । इस शब्द का मूल अर्थ ही है छत । संस्कृत की धातु है वृतु संवरणे अर्थात् आच्छादन कर देना । किसी चीज को ढांक देने का नाम है व्रत । छत बना ली, व्रत हो गया । मन पर एक छप्पर डाल दिया, व्रत हो गया । कुछ नहीं डाला, मन खुला रह गया तो हर चीज घुस जायेगी । खुले घर में चोर-उचक्के घुस सकते हैं और जंगली जानवर भी घुस सकते हैं ।
एक पंडित यात्रा पर निकला । जंगल में उसे भूख लगी । एक जगह को साफ कर उसे लीपा और चूल्हा बनाया । फिर ईंधन इकट्ठा करने कुछ दूर निकल गया । वापस आया तो देखा, वहां एक गधा बैठा है । चौका खुला था, गधे को वहां बैठने से कौन रोक सकता था ? पंडित हैरान रह गया । वह बोला- ‘गर्दभराज ! कोई दूसरा इस तरह आकर बैठा होता तो उससे कहता- देखते नहीं, गधे हो क्या ? अब आप स्वयं यहां आकर विराज गए हैं तो क्या कहूं, आपको क्या उपमा दूं ।'
संस्कार व्रत का
घर खुला रहेगा तो उसमें गधा भी घुसेगा और कुत्ता भी घुसेगा | यह खुलावट एक बड़ी समस्या है । इसीलिए जीवन में व्रत का विधान किया गया । पुराने संत लोगो को इस भाषा में समझाया करते थे- 'भाई ! अधिक नहीं तो कम-से-कम एक व्रत ले लो कि कौए को नहीं मारूंगा, किसी चिड़िया को नहीं मारूंगा ।' कौए को मारने का कब कितना काम पड़ता है ? लेकिन यह इसलिए कहा जाता था कि इससे एक संस्कार शुरू होता था । जीवन में कोई न कोई छोटा-सा व्रत या त्याग तो होना ही चाहिए | बड़ा महत्त्व है व्रत का । जिस व्यक्ति ने इसका मूल्यांकन किया है, उसने एक तरह से अपनी मानसिक समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न किया है । मन की गति बहुत तीव्र है । विज्ञान अभी तक ऐसा कोई यंत्र विकसित नहीं कर पाया है, जो इसकी रफ्तार को माप सके । जब इतनी तेज रफ्तार हो और उस पर कोई नियंत्रण न हो तो दुर्घटना अवश्यंभावी है । मन के अश्व की लगाम
प्रतिक्रमण
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