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यथार्थ को देखें
इन सारे संदर्भो में देखें तो जैन तीर्थङ्करों ने एक नया दर्शन दिया है। उन्होंने कहा- सचाई को सामने रखकर चलो, सचाई को झुठलाओ मत । हमारी भक्ति के पीछे भी यथार्थ खड़ा रहे । इसीलिए कहते हैं अन्ध भक्ति नहीं होनी चाहिए । यथार्थ को छोड़कर हमारी भक्ति नहीं होनी चाहिए । इसी दृष्टिकोण के कारण जैन दर्शन यथार्थवादी दर्शन है।
बहुत लोगों को मैंने देखा है, जो सामने तो प्रशंसा के ऐसे पुलिन्दे बांधते हैं कि सुनकर आश्चर्य होता है । और उन्हीं व्यक्तियों को परोक्षतः निन्दा करते हुए सुना तो भरोसा नहीं हो सका कि यह वही आदमी है । भीतर और बाहर में इतना बड़ा व्यवधान चलता है, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती । यह सारा क्यों होता है ? जब तक आत्मा की शरण में जाने की बात समझ में नहीं आती तब तक व्यवहार का भी शोधन नहीं होता, व्यवहार में एकरूपता नहीं आ सकती। मंगल पाठ का मर्म
शरण की बात महत्त्वपूर्ण है | बौद्ध धर्म में भी कहा गया-'बुद्धं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि' । जैन धर्म में भी 'शरणं पवज्जामि' का घोष प्रतिपादित हुआ । जैन दर्शन ने कहा-'शरण लो लेकिन सचाई को याद रखो, निश्चय को मत भुलाओ 'मैं अकेला हूं, वास्तव में अकेला हूं, और अकेला रहूं तभी सुखी रहूंगा ।' आचार्य भिक्षु ने भी यही कहा-संघ में रहते हुए भी अकेले रहना । दोनों बातें चलें । संघ में हूं, यह मेरा व्यवहार है और अकेला हूं, यह मेरा निश्चय है । दोनों का योग करके हमें चलना है । मंगलपाठ में निश्चय और व्यवहार-दोनों के सूत्र हैं इसीलिए हर कोई यात्रा करने वाला व्यक्ति मंगलपाठ सुनना चाहता है । वह चाहता है कि अर्हत्, सिद्ध आदि सभी मंगल मेरे साथ रहें । ___मंगल -पाठ का यह हार्द, निश्चय और व्यवहार में समन्वय के संतुलन की भावना, हमारे सामने स्पष्ट रहे तो जीवन मंगलमय बनेगा।
केवल यात्रा के समय, केवल प्रवचन की समाप्ति के बाद ही मंगलपाठ न सनें । यह मंगलपाठ यदि हम निरन्तर सनते रहें, चौबीस घण्टा यह ध्वनि यदि हमारे कानों में गूंजती रहे तो वास्तव में हमारा जीवन सुखी बनेगा शायद हम दूसरों के लिए भी मंगल एवं कल्याण की बात प्रस्तुत कर सकेंगे।
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जैन धर्म के साधना-सूत्र
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