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साध्वाचार के सूत्र १. हस्तकर्म करना। वेद का प्रबल उदय होने पर हस्तमर्दन या अन्य किसी भी प्रकार से वीर्य का नाश करना हस्तकर्म कहलाता है। इसे स्वयं करनेवाला एवं दूसरे से करवाने वाला साधु शबल (दागी) हो जाता है। २. मैथुन सेवन करना। इसमें अतिक्रम व्यतिक्रम एवं अतिचार तक की मैथुन-संबंधी क्रियाएं ग्रहण की गई हैं। अनाचार अर्थात् स्त्री-पुरुषादि से शरीर द्वारा मैथुन सेवन करने पर तो ब्रह्मचर्य का महाव्रत ही नष्ट हो जाता
३. रात्री भोजन करना। ४. आधाकर्म आहारादि का सेवन करना। ५. राजपिण्ड का सेवन करना। ६. क्रीत (साधुओं के लिए खरीदा हुआ) प्रामित्य (साधुओं के लिए उधार लाया हआ) आछिन्न (दुर्बल से छीन कर लाया हुआ) अनिसृष्ट (दूसरे हिस्सेदार की अनुमति के बिना दिया हुआ) आहारादि लेना एवं भोगना। ७. बार-बार अशन आदि का प्रत्याख्यान करके उसे भोगना। ८. छह महीने के अन्दर एक गण को छोड़ कर दूसरे गण में जाना। विशेष ज्ञान की प्राप्ति के लिए गुरु-आज्ञा से साधु दूसरे गण में जा सकता है लेकिन छह मास से पहले पुनः गण का परिवर्तन नहीं करना चाहिए। ९. एक महीने में तीन उदक-लेप लगाना। (दशाश्रुतस्कंध टीका के अनुसार नाभिप्रमाण गहरे जल को पार करना उदक-लेप कहलाता है।) १०. एक महीन में तीन मायास्थान का सेवन करना। माया स्थान का सेवन तो सर्वदा निषिद्ध ही है किन्तु बार-बार भूल करना शबलदोष माना गया है। ११. शय्यातरपिण्ड का सेवन करना। १२-१४. जानबूझ जीव हिंसा करना, झूठ बोलना, चोरी करना। १५-१७. जान-बूझ कर सचित्त पृथ्वी, स्निग्ध और सचित्त रजों वाली पृथ्वी, सचित्त शिला, पत्थर एवं घुणों वाली लकड़ी पर इसी प्रकार जीवों वाले स्थान अर्थात् प्राण-बीज-हरियाली-कीड़ीनगरा-लीलन-फूलन-पानीकीचड़ मकड़ी के जाले आदि पर बैठना, सोना एवं कायोत्सर्गादि करना । १८. जान-बूझ कर (सचित्त) मूल-कन्द-छाल-प्रवाल-पुष्प-बीज या हरितकाय आदि का भोजन करना ।
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