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लब्धि, प्रतिमा प्रकरण
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चारणलब्धि वाले साधुओं के और भी कई भेद हैं। यथा- जलचारण, फलचारण, पुष्पचारण, पत्रचारण, अग्निशिखा-चारण, . धूमचारण, मेघचारण, ज्योतिरश्मिचारण, वायुचारण आदि। ये क्रमशः जल-फलपुष्प-पत्र आदि का आलम्बन लेकर उनके जीवों की विराधना न करते हुए चल सकते हैं। जलचारण आदि मुनि लब्धियों का प्रयोग प्रायः नहीं करते। ११.आशीविषलब्धि-इस लब्धि वालों की आशी अर्थात् दाढ़ा में महान् विष होता है। इनके दो भेद हैं-कर्मआशीविष और जातिआशीविष ।'
तप अनुष्ठान एवं अन्य गुणों के प्रभाव से जो शाप आदि देकर दूसरों को मार सकते हैं, वे कर्मआशीविष कहलाते हैं। इस लब्धि के धारक पञ्चेन्द्रिय-तिर्यञ्च-मनुष्य ही होते हैं। देवता जो शाप आदि देते हैं, वह इस लब्धि से नहीं देते किन्तु देवभव-सम्बन्धी-विशेषशक्ति से देते हैं। जातिआशीविष के चार भेद हैं-बिच्छु, मेंढक, सांप और मनुष्य। ये उत्तरोत्तर अधिक विषवाले होते हैं। बिच्छु का विष उत्कृष्ट अर्ध-भरतक्षेत्र, मेंढक का विष सम्पूर्ण-भरतक्षेत्र सांप का विष जम्बूद्वीप एवं मनुष्य का विष ढाई-द्वीप-प्रमाणक्षेत्र (शरीर) को विषयुक्त बना सकता है। १२. केवलज्ञानलब्धि-इस लब्धिवाले मुनि चार घाती-कर्मों का क्षय करके केवलज्ञानी बनते हैं एवं त्रिकालवर्ती सकल पदार्थों को स्पष्ट रूप से जानने-देखने लगते हैं। १३. गणधरलब्धि--इस लब्धिवाले मुनि लोकोत्तर ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि गुणों के धारक तथा प्रवचन (तीर्थंकर की वाणी) को पहले-पहल सूत्ररूप में गूंथने वाले होते हैं एवं गणधर कहलाते हैं। ये तीर्थंकरों के प्रधानशिष्य और गणों के नायक होते हैं। १४. पूर्वधरलब्धि-इस लब्धिवाले योगी जघन्य दसपूर्वधर एवं उत्कृष्ट चौदहपूर्वधर होते हैं। दसपूर्व से कम पढ़े हुए व्यक्ति पूर्वधरलब्धियुक्त नहीं माने जाते।
१५. अर्हल्लब्धि इस लब्धिवाले अशोकवृक्ष आदि आठ महाप्रतिहार्यों से सम्पन्न तीर्थंकरदेव होते हैं। १६. चक्रवर्तिलब्धि-इस लब्धिवाले चौदहरत्न-नवनिधान के धारक एवं
छहः खंडों के स्वामी चक्रवर्ती होते हैं। इनमें चालीस लाख अष्टापद १. भ. ८/२/८६
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