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साध्वाचार के सूत्र हैं, भविष्य में आचार्य पद के योग्य होते हैं और सूत्र की वाचना दिया
करते हैं, वे उपाध्याय कहलाते है।' प्रश्न ३६. उपाध्याय के पच्चीस गुण कौन-कौन से हैं? उत्तर-१-१२. बारह अंगशास्त्रों के वेत्ता १३. करणगुणसम्पन्न १४. चरणगुण
संपन्न १५-२२. आठ प्रकार से शासन की प्रभावना करने वाले २३-२५. तीनों योगों को वश में करने वाले। ये उपाध्याय के पच्चीस गुण हैं। ग्यारह अंग, बारह उपांग के ज्ञाता तथा आगम अध्ययन व अध्यापन में कुशल
इन पच्चीस गुणों के धारक उपाध्याय होते है। प्रश्न ३७. उपाध्याय बनने वाले साधु कितने वर्ष के दीक्षित होने चाहिये? उत्तर-कम से कम तीन वर्ष के दीक्षित एवं आचारकल्प (आचारांग-निशीथ) के
ज्ञाता तथा आचारकुशलता आदि गुणों से सम्पन्न। इतनी योग्यता होने पर
भी वे व्यंजन-जात (उपस्थ व काख में रोमयुक्त) अवश्य होने चाहिये। प्रश्न ३८. आचार्य, उपाध्याय गण से किन किन कारणों से मुक्त हो सकते
हैं? उत्तर-पांच कारणों से वे गण से पृथक् हो जाते हैं। जैसे-१. गण में आज्ञा
धारणा (प्रवृत्ति-निवृत्ति) का अच्छी तरह प्रयोग न कर सकने पर। २. अभिमानवश स्वयं दीक्षावृद्ध साधुओं का उचित विनय न कर सकने पर। या दूसरों द्वारा न करवा सकने पर। ३.शिष्यों को यथासमय शास्त्र न पढ़ा सकने पर (शास्त्र न पढ़ा सकने के दो कारण हैं आचार्य-उपाध्याय का मन्दबुद्धि एवं सुख में आसक्त होना अथवा शिष्यों का अविनीत-अयोग्य होना)। ४. स्वगण या अन्यगण की साध्वी में मोहवश आसक्त हो जाने पर। ५. मित्र एवं ज्ञातिजनों के दुःख से प्रेरित होकर वस्त्रादि द्वारा उनकी
सहायता करने के लिये विवश हो जाने पर। प्रश्न ३६. प्रवर्तक किसे कहते हैं? उत्तर-तप, संयम एवं शुभयोग में जो साधु जिस कार्य के लिए योग्य हो, उसे
उसी कार्य में प्रवृत्त एवं अयोग्य को उस कार्य से निवृत्त कर दूसरे कार्य में संयोजित करने वाले तथा गण की चिंता में लीन रहने वाले साधु प्रवर्तक कहलाते है।
१. प्रवचनसारोद्धार, प्रभावनायोगननिग्गा २. अमृत कलश, भाग-३
३. व्यवहार ३/३,७/२०, १०/२५ ४. स्थानां. ५/२/१६७
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