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भावभूमि इकट्ठा होगा, न राधा नाचेगी। न हम कभी आत्मा को जान पायेंगे, न कभी हमें सम्यग् ज्ञान होगा। समझा जाता है कि आत्मज्ञान तो कुछ गिने-चुने बिरले योगियों को ही होता है। तिस पर भी तुक्का यह है कि आत्मा के स्वरूप के बारे में मतभेदों का अंत नहीं है। वेदान्त के लिए आत्मा एक ही है और सर्वव्यापक है। सांख्य के लिए आत्मा एक तो नहीं है पर सर्वव्यापक है। बौद्ध कहता है कि आत्मा नाम की चीज है ही नहीं, हालांकि पुनर्जन्म और कर्मफल है। इस भूल-भुलैया में दार्शनिकों को रस आ सकता है, लेकिन सामान्य व्यक्ति तो यह सब सुनकर तौबा कर लेता है कि अपने को इस चक्कर में नहीं पड़ना, ईमानदारी से परिश्रमपूर्वक अपनी आजीविका चलाकर दो जून रोटी खा लेनी है। आत्म-स्वरूप का निर्णय करना उन निठुलों के लिए है जिन्हें बिना कुछ करे-धरे रोटी मिल जाती है !! अपन ठहरे दुनियादार आदमी ! बाल-बच्चों का पेट भरना है। इस चक्कर में पड़े तो दुनिया के काम के नहीं रहेंगे।
बेईमानी के बिना काम नहीं चलता-यह पहला भ्रम है और आत्मा-परमात्मा के चक्कर में पड़ गये तो दुनिया के काम के नहीं रहेंगे-यह दूसरा भ्रम है। यह भ्रम सर्वथा निराधार नहीं है। जिन्होंने दर्शन को बुद्धि-विलास बना दिया है उन्होंने दर्शन को सचमुच ऐसा बना दिया कि दार्शनिक आधा पागल लगता है और दीवार पर गोबर के उपले थापे हुए देखकर यह सोचा करता है कि दीवार पर इतनी ऊँची चढ़कर गाय ने गोबर कैसे कर दिया। उसके ध्यान में यह सीधी-सी बात नहीं आती कि किसी व्यक्ति ने गाय के गोबर को जमीन से उठाकर दीवार पर चिपका दिया होगा।
आत्मा-परमात्मा का चक्कर कई बार सचमुच आदमी को पागल बना देता है। आत्मा शब्दों से परे है। तर्क से परे है, वहां तक बुद्धि नहीं जा सकती। उसका न नाम है, न रूप। उसमें न गंध है, न रस, न स्पर्श। ऐसे-ऐसे वक्तव्य पढ़कर आदमी अन्धी गलियों में भटकने के अतिरिक्त क्या कर सकता है।
। सत्य यह है कि आत्मा कोई परीलोक की चीज नहीं है। मैं स्वयं आत्मा हूं। घबराने की बात नहीं है। मेरा नाम भी है और रूप भी है। मुझे जाना जा सकता है। यह सच है कि मेरे अस्तित्व के हर कण में आत्मा है, मेरी हर क्रिया में आत्मा का योगदान है। अपने अस्तित्व में, अपनी क्रिया में आत्मा को देखा जा सकता है। आत्मा का हम कोई संकीर्ण अर्थ न करें। शरीर अत्यन्त स्थूल है, किंतु प्रारम्भिक स्थिति में हम शरीर को ही आत्मा मानकर चल सकते हैं। शरीर को समझना भी कोई साधारण बात नहीं है। जिसने शरीर को समझा, उसने अपने अस्तित्व को समझने की प्रक्रिया प्रारम्भ कर दी। प्रारम्भ स्थूल से हुआ, किंतु यह स्थूल से प्रारम्भ हुई यात्रा ही मन-बुद्धि से होती हुई उस
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