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विभूत्यधिकरणम्
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निःस्पन्दतासिद्धिश्च
ध्यान का प्रयोग तरंगातीत जगत् का अनुभव करने के लिए करते हैं । किंतु तरंगों के जगत् से परे जाना, गुरुत्वाकर्षण को तोड़कर अन्तरिक्ष में जाना कोई साधारण बात नहीं है, बहुत ही कठिन बात है। मनुष्य पुरुषार्थी है । उसमें असीम मनोबल है। उसमें असीम संकल्प है । उसकी चेतना प्रबल है, जब कोई व्यक्ति वैज्ञानिक पद्धति के आधार पर अन्तरिक्ष की यात्रा कर सकता है तो ध्यान के द्वारा तरंगातीत चेतना का अनुभव क्यों नहीं कर सकता? ऐसा संभव है ।
जो व्यक्ति भाषातीत, विकल्पातीत और चिन्तनातीत नहीं होता वह कभी तरंगातीत नहीं हो सकता ।
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अनाहतनादश्च
कभी-कभी ध्यान में इस प्रकार के रंगों का दर्शन होता है कि वैसे रंग इस दुनिया में देखने को कभी नहीं मिलते। सुंदर, तेज और ज्योतिर्मय । जब हमारा सूक्ष्म जगत् के साथ सम्पर्क होता है, शब्द भी सुनाई देने लग जाते हैं। जब अन्तर शक्ति काम करने लगती है तब ये सारी बातें घटित होने लग जाती है । यह न कोई चमत्कार है, न कोई प्रदर्शन ।
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वीर्याभिव्यक्तिश्च
श्रद्धा से तत्काल लाभ मिलता है। जैसे ही अनन्त शक्ति सम्पन्न अर्हत् की आराधना प्रारम्भ होती है, शरीर के कण-कण में पराक्रम फूटने लगता है, अनुभव होने लगता है । एक कमजोर व्यक्ति तब अपने आप में शक्ति का अनुभव करने लग जाता है ।
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सङ्कल्पसिद्धिश्च
संकल्प में बहुत बड़ी शक्ति होती है। जिस प्रकार का संकल्प होता है, परमाणुओं को उसी रूप में संगठित होने के लिए बाध्य होना पड़ता है आकाश में बादल नहीं है। आदमी ने संकल्प किया । वह सघन और सृदृढ़ हुआ । इस स्थिति में परमाणुओं को बादल के रूप में बदलना होता है ।
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श्रीवृद्धिश्च
ये सूत्र हमारी आन्तरिक भावना को जागृत करते हैं। मैं श्री सम्पन्न बनूं। लेश्या के सिद्धांत में दरिद्रता को कोई स्थान नहीं है। जिसकी लेश्याएं पवित्र होती हैं, वह महान् ऋद्धि वाला होता है । महान् वैभव वाला होता है । जैसे
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