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अन्तरायाधिकरणे शारीरिकबाधापदः ० प्रतिशोधभावना च
प्रतिशोध की भावना, क्रोध और अहंकार की भावना-ये मानसिक ग्रंथियां विषमता पैदा करती हैं। ० बुद्धिश्च
बुद्धि ने मेरे और अस्तित्व के बीच में व्यवधान डाल रखा था। जैसे ही मैंने चेतना के प्रवाह का बुद्धि के स्रोत से जाना निरुद्ध किया, वैसे ही मेरे और मेरे अस्तित्व के मध्य का व्यवधान समाप्त हो गया। ० व्यथा च
रोग का प्रवाह जो काम की दिशा में जाता है, उसका सबसे बड़ा कारण है तनाव। ०. जनसङ्कुलता च
क्रोध, अहं, घृणा, ईर्ष्या-ये सारी प्रवृतियां क्यों होती हैं? इसीलिए होती हैं कि हम इस बात को भूल जाते हैं-मैं अकेला हूँ | सामायिक का महत्त्वपूर्ण सूत्र है-मैं अकेला हूँ। जब अकेला है तब विषमता कहाँ से आयेगी? ० सङ्गश्च
संग नहीं छोड़ेगें तो कषाय को उत्तेजना मिलेगी। कषाय उत्तेजित होगा तो अध्यवसाय विकृत होगा । अध्यवसाय विकृत होगा तो लेश्या अशुद्ध होगी। लेश्या अशुद्ध होगी तो अशुद्ध मन का निर्माण होगा। अशुद्ध मन का निर्माण होगा तो चित्त विकृत होगा।
__उत्तेजना के दो कारण-विषय की सन्निधि और आंतरिक विकार। ___ व्यक्ति ध्यान करने बैठता है तो कभी आंकाक्षाओं का ज्वार आता है, कभी प्रमाद का अन्धकार छा जाता है, कभी कषाय की आग भभक उठती है और वह ध्यान से भटक जाता है।
।। इति अन्तरायाधिकरणे शारीरिकबाधापादः।।
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